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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܙ www.kcbatirth.org पचनन्दिपश्चविशतिका । सम्यग्ज्ञानकी प्रभाको रोकनेवाले अंधकारकी निकटता न होवे । भावार्थ:--जिसप्रकार सूर्य निरावरण मार्गमें गमन करता है इसलिये उसका प्रकाश किसीकेहारा रोका || नहीं जाता उसीप्रकार जिसयोगकिा मन निरालम्बमार्गमें गमन करता है अर्थात् जिससमय योगी निरालम्बध्यानको करता है उससमय उसयोगीके सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानरूपीतेजको दर्शनावरण ज्ञानावरणरूपी अंधकार रोक नहीं सक्ता इमलिये योगियों को सदा निरालम्बही ध्यान करना चाहिये ॥ २२ ॥ रुग्जरादिविकृतिर्न मेऽअसा सा तनोरहमितः सदा प्रथक् । ____ मीलितेऽपि सति खे विकारिता जायते न जलदैर्विकारिभिः ॥ २३ ॥ अर्थः-नानाप्रकारके विकारोंकर सहितमेघोंकेसाथ संबंध होनेपर भी जिसप्रकार आकाशमें किसीप्रकारका विकार पैदा नहीं होता क्योंकि वे विकार मेघोंके हैं उसीप्रकार रोग वृद्धावस्था आदि नानाप्रकारके विकार शरीरके विकार ही हैं मेरे ( आत्माके) विकार नहीं है क्योंकि शरीरसे में मदा जुदाहूं । भावार्थः-मूर्तीकपदार्थों में ही विकार होता है अमूर्तीक पदार्थों में नहीं आकाश अमूर्तीक है इसलिये अनेकप्रकारके विकार सहित मेघोंके सम्बन्धहोनेपरभी जिसप्रकार आकाशमें विकार नहीं होता उसीप्रकार आत्माका भी विकार नहीं होसक्ता क्योंकि आत्मा अमूर्तीक है जो रोग वृद्धावस्था आदि विकार है वे शरीरके विकार हैं तथा शरीर आत्मासे सर्वथा भिन्न है ॥ २३ ॥ व्याधिनाङ्गमभिभूयते परं तद्गतोऽपि न पुनश्चिदात्मकः । उच्छ्रितेन गृहमेव दह्यते वन्हिना न गगनं तदाश्रितम् ॥ २४ ॥ अर्थः-यदि किसीकारणसे मकानमें अनि लगजावे तो उस अग्निसे मकानहीं जलता है किन्तु उसके ܐ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ (ग२७० For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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