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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ܀ ܀ܪ܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀ ܀ ܀ पअनन्दिपञ्चविंशतिका । अर्थः-मैं समस्त कौकर रहित मुक्तहूं ऐसा भी संयमियोंको नहीं मानना चाहिये तथा मैं समस्त काँकर सहितहूं ऐसाभी नहीं मानना चाहिये क्योंकि निर्विकल्पपदवीको आश्रय करनेवालाही संयमी मोक्ष पदको प्राप्त होता है _ भावार्थः-मैं कर्मकर रहितहूं यह भी विकल्प है तथा मैं कर्मकर सहित हूं यहभी विकल्प है और जिस संयमीके जबतक ऐसा विकल्प रहता है तबतक उसकी कदापि मुक्ति नहीं होती इसलिये जो संयमी मोक्षाभिलाषी हैं उनको निर्विकल्पक पदवीकाही आश्रय करना चाहिये ॥ १८ ॥ अब आचार्य द्वैत तथा अद्वैतभावका निषेध वर्णन करते हैं। कर्मचाहमिति च दये सति दैतमेतदिह जन्मकारणम् । एक इत्यपि मतिः सती न यत्साप्युपाधिरचिता तदङ्गभृत् ॥ १९॥ अर्थ:-हे जीव कर्म तथा मैं दो हूं इसप्रकारका दैतभी जीवों को संसारका कारण है अर्थात् इसप्रकारके द्वैतसेभी जीवोंको नानाप्रकारके भवोंमें भ्रमण करना पड़ता है तथा मैं एकहूं यहभी बुद्धि ठीक नहीं क्योंकि उपर्युक्त दोनोप्रकारकी बुद्धि उपाधिजन्य हैं। भावार्थः-मैं हैतहूं तथा एकहूं इसप्रकारके दोनोंभाव असत्य हैं क्योंकि ये संसारके उत्पन्न करनेवाले हैं तथा कर्मजनित उपाधिसे पैदा हुवे हैं इसलिये जोपुरुष मोक्षाभिलाषी हैं उनको इनदोनोंभावोंका त्यागकर निर्विकल्प पदवीकाही आश्रय करना चाहिये ॥ १९ ॥ अब आचार्य इसवातको दिखाते हैं कि शुद्धभावनातोशुद्धपदकी कारण है और अशुद्धभावना अशुद्ध पदकी कारण है संविशुद्धपरमात्मभावना संविशुद्धपदकारणं भवेत् । सेतरेतरकृते सुवर्णतो लोहतश्च विकृती तदाश्रिते ॥ २० ॥ 14.......००००००००००००................................ ॥२७७॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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