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पद्मनन्दिपश्चविंशतिका ।
मलिन होने परभी जो निर्मल है और देहधारी होनेपर भी जो देहकर रहित है इसलिये आचार्य कहते हैं कि आत्माका स्वरूप आश्चर्यकारी है ।
भावार्थ:- इस श्लोक में विरोधाभास नामक अलंकार है इसलिये आचार्य विरोधको दिखाते हैं कि जो कर्मबंधन कर सहित है वह कर्मबंधनकर रहित कैसे होसक्ता है ? और जो समल है वह निर्मल कैसे होसक्ता है ? और जो देहसहित है वह देहरहित कैसे होसक्ता है ? अब आचार्य विरोधका परिहार करते हैं यद्यपि अशुद्धनिश्चयसे आत्मा कर्मबंधनकर सहित है तथापि शुद्धनिश्चयनयसे आत्मा कर्मबंधनकर रहितही है तथा यद्यपि आत्मा अशुद्धनिश्चयनयसे रागद्वेषसे मलिन है तोभी शुद्धनिश्चयनयसे वह निर्मल है और आत्मा व्यवहारनयसे शरीरकर सहित है तोभी शुद्धनिश्चयनयसे उसका कोई शरीर नहीं है ।
सारार्थ किसी अपेक्षासे आत्मा कर्मबंधनकर सहित है तथा किसी अपेक्षासे कर्मबंधनकर रहित है और किसी अपेक्षासे रागद्वेषसे मलिन है तथा किसी अपेक्षासे निर्मल है और किसी अपेक्षासे आत्मा शरीर सहित है तथा किसी अपेक्षामे शरीर कर रहित है इसप्रकार आत्मा अनेकधर्मात्मक है एकधर्मात्मक नहीं ऐसा विश्वास रखना चाहिये ॥ अब आचार्य इसवातको दिखाते हैं कि अनेकान्तात्मक वस्तुमें किसीप्रकारका विरोध नहीं आसक्ता । रथोदता ।
निर्विनाशमपि नाशमाश्रितं शून्यमप्यतिशयेन सम्भृतम् ।
एकमेव गतमप्यनेकतां तत्वमीदृगपि नो विरुच्यते ॥ १४॥
अर्थः- जो अनेकान्तात्मक तत्व नाशरहित होनेपर भी नाशकर सहित है और शून्य होनेपर भी संपूर्ण है ( राहुवा है ) तथा एक होनेपरभी अनेक है ऐसा होनेपर भी उसमें किसीप्रकारका विरोध नहीं है ॥
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