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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ www.kobatirth.org पवनन्दिपश्चविंशतिका । कर रहित है और यदि समस्तवाणी युगपत् मिलजावें तो भी उसका वर्णन नहीं करसक्ती हैं अर्थात् जो वाणीके अगोचर है ऐसा वह चैतन्यरूपीतेज सदा इसलोकमें जयवंत है ॥ ५ ॥ रथोद्धता। नो विकल्परहितं चिदात्मकं वस्तु जातु मनसोऽपि गोचरम् । कर्मजाश्रितविकल्परूपिणः का कथा तु वपुषो जडात्मनः ॥६॥ अर्थः-समस्त प्रकारके विकल्पोंकर रहित जो चैतन्यरूपीतेज किसीभी रीतिसे मनकेभी गोचर नहीं हो सक्ता, वह चैतन्यरूपीतेज कमसे पैदाहुवे नानाप्रकारके विकल्प वही है रूप जिसका तथा जडस्वरूप ऐसे शरीरके गोचर कब हो सक्ता है ? अर्थात् कदापि नहीं हो सक्ता ॥६॥ अब आचार्य इसबातको बताते हैं कि वह चैतन्यरूपी तत्व मन आदिके प्रत्यक्ष न होकर भी खानुभव गम्य है। चेतसो न वचसोऽपि गोचरस्तर्हि नास्ति भविता खपुष्पवत् । शङ्कनीयमिदमत्र नो यतः स्वानुभूतिविषयस्ततोऽस्ति तत् ॥ ७॥ अर्थः-यदि कोई मनुष्य इसबातकी शंका करै कि चैतन्यरूपीतेज न तो मनके गोचर है और न बच| नके गोचर है इसलिये आकाशके फूलके समान उसका नास्तित्व हो जायगा तो आचार्य समाधान देते हैं कि ऐसी शंका कदापि नहीं करनी चाहिये क्योंकि वह चैतन्यरूपीतत्त्व स्वानुभवसे जानाजाता है इसलिये नास्तित्त्व न होकर उसका अस्तित्व ही है। भावार्थः-आकाशका फूल न तो विचारनेमें ही आसक्ता है और न उसको देख तथा सुनही सक्ते है तथा उसको वचनसे भी नहीं कह सक्ते हैं इसलिये जिसप्रकार उसकी अस्तिता नहीं कही जासक्ती उसीप्रकार ॥२७॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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