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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ पअनन्दिपश्चविंशतिका । प्रकारके दुःख सहन करने पड़ते हैं इसलिये भव्यजीवोंको ऐसे परमअहितके करनेवाले रागद्वेषोंका त्याग अवश्य ही करदेना चाहिये ॥ २६ ॥ किं बाह्येषु परेषु वस्तुषु मनः कृत्वा विकल्पान् बहून् रागद्वेषमयान् मुधैव कुरुषे दुःखाय कर्माशुभम् । आनन्दामृतसागरे यदि वसस्यासाद्य शुद्धात्मनि स्फीतं तत्सुखमेकतामुपगतं त्वं यासि रे निश्चितम् ॥ अर्थ:-हे मन बाह्य तथा तुझसे भिन्नजो स्त्री पुत्र आदिपदार्थ हैं उनमें रागहषस्वरूप अनेक प्रकारके विकल्पोंको करके क्यों दुःखके लिये तू व्यर्थ अशुभ कर्मको बांधता है यदि तू आनंद रूपी जलके समुद्र में शुद्धात्माको पाकर उसमें निवास करेगा तो तू विस्तीर्ण निर्वाणरूपी सुखको अवश्य प्राप्त करेगा इसलिये तुझे आनंद स्वरूप शुद्ध आत्मामें ही निवास करना चाहिये और उसीका ही ध्यान तथा मनन करना चाहिये॥२७ इत्याध्याय हृदि स्थिरं जिन भवत्पादप्रसादात्सती मध्यात्मैकतुलामयं जन इतः शुद्धयर्थमारोहति । एवं कर्तुममी च दोषिणमितः कर्मारयो दुर्धराःतिष्ठन्ति प्रसभं तदत्र भगवन् मध्यस्थसाक्षी भवान् । अर्थः-हे जिनेन्द्र आपके चरणकमलोंकी कृपासे पूर्वोक्त बातोंको भलीभांति मनमें चितवनकर जिस समय यह प्राणी शुद्धिके लिये अध्यात्मरुपी तुला (तखड़ी) चढ़ता है उससमय उसको दोषी बनानेके लिये कर्म रूपी भयंकर बैरी मौजूद है इसलिये हे भगवान् ऐसी दशामें आपही मध्यमें बैठकर साक्षी हैं। भावार्थ-तखड़ीके दो पले होते हैं उनमें से अध्यात्मरुपी एक पलड़ेपरतो शुद्धि के लिये यह प्राणी चढ़ता है और दूसरे में कर्मरूपी बैरी उस प्राणीको दोषी बनानेकेलिये मौजूद हैं और हे भगवन् आप उनदोनोंके बीचमें साक्षी हैं इसलिये आपको पूरीतौरसे न्याय करना चाहिये ॥ २८ ॥ विकल्वरूप ध्यानतो संसरास्वरूप है और निर्विकल्पध्यान मोक्षखरूप है इस बातको आचार्य दिखाते हैं ) ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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