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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ...............600.004060 ०००००००००००००००००००००००००००८ . पद्यनन्दिपञ्चविंशतिका । तो वे गुण प्रकट होगये हैं और मेरे उनगुणोंकी प्रकटता नहीं हुई है उसभेदका करनेवाला यहकर्म ही है क्योंकि कर्मोंकी कृपासे ही उसमेरे स्वभावोंपर आवरण पड़ा हुआ है तथा इससमय हमदोनों आपके सामने मौजूद हैं इसलिये इसदुष्टको दूरकरो क्योंकि आप तीनोंलोकके स्वामी हैं और नीतिवान् स्वामीका यह धर्म है कि वह सज्जनोंकी रक्षा करै तथा दुष्टोंका नाश करै ॥ २०॥ आधिव्याधिजरामृतिप्रभृतयः संबन्धिनो वर्गणस्तद्भिन्नस्य ममात्मनो भगवतःकिं कर्तुमीशा जडाः॥ नानाकारविकारकारिण इमे साक्षान्नभोमण्डले तिष्ठन्तोऽपि न कुर्वते जलमुचस्तत्र स्वरूपान्तरम् ॥ अर्थ:-हे भगवन् नानाप्रकार के आकार तथा विकारोंको करनेवाल मेघ आकाशमें रहतेहुए भी जिसप्रकार आकाशके स्वरूपका कुछ भी हेरफेर नहीं करते उसीप्रकार आधि, व्याधि, जरा, मरण आदि भी मेरा कुछ नहीं करसक्ते क्योंकि ये समस्त शरीरके विकार जड़ हैं तथा मेरी आत्मा ज्ञानवान् और शरीरस भिन्न है। भावार्थ:-जिसप्रकार आकाश अमूर्तीक है इसलिय रंगविरंगे भी मेध उसके ऊपर कुछ भी अपना प्रभाव नहीं डालसक्ते तथा उसके स्वरूपका परिवर्तनभी नहीं करसक्त उसी प्रकार आत्मा ज्ञानदर्शनमय अमूर्तीक पदार्थ है इसलिये इस परभी आधि, व्याधि, जरा, मरण, आदि कुछभी अपना प्रभाव नहीं डालसक्के क्योंकि ये मूर्तीक शरीरके धर्म हैं और आत्मा शरीरसे सर्वथा भिन्न है ॥ २१॥ संसारातपदह्यमानवपुषा दुःखं मया स्थीयते नित्यं नाथ यथा स्थलस्थितिमतामत्स्येन ताम्यन्मनः। कारुण्यामृतसंगीतलतर त्वत्पादपङ्केरुहे यावद्देव समर्पयामि हृदयं तावत्परं सौख्यवान् ॥ २२ ॥ अर्थ:--हं भगवन् जिसप्रकार जलसे बाहिर स्थलमें विना पानीके मछली तड़फड़ाती है उसीप्रकार संसाररूपी संतापसे जिसका शरीर जलरहा है एसा मैं सदा दुःखित ही रहताहूं किन्तु जबतक करुणारूपी 0000 6 ...16 ....... For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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