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Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पचनान्दपश्चविंशतिका । अर्हन्नाथ परं करोमि किमहं चेतो भवत्सन्निधावद्यापि ध्रियमाणमप्यतितरामेतद्वाहिर्धावति ॥ १२ ॥
अर्थः-पूर्वभवमें कष्टसे संचय कियेहुवे बड़ेभारी पुण्यसे जिस मनुष्यने हेभगवन् तीनलोकके पूजनीक आपको पालिया है उसमनुष्यको उसउत्तमपदकी प्राप्ति होती है जिसको निश्चयसे ब्रह्मा विष्णु आदि भी नहीं पासक्ते परन्तु हे अहज्जिनेन्द्र तथा हे नाथ मैं क्या करूं? आपके समीपमें लगाया हुवा भी मेरा चित्त प्रवल रीतिसे बाह्यपदार्थों की ओर ही दौड़ता है।
भावार्थ:-सहसा यदि कोई मनुष्य चाहै कि मैं आपको प्राप्त करलूं वह स्वप्नमें भी नहीं करसक्ता किन्तु पूर्वमें संचय कियेहुवे बड़ेभारी पुण्यसेही आपकी प्राप्ति होती है इसलिये हेभगवन् जिसमनुष्यने आपको प्राप्त करलिया है उसमनुष्यको उस उत्तमपदकी प्राप्तिहोती है जिस पदको ब्रह्मा विष्णु आदिके भक्तों की तो क्याबात ? स्वयं ब्रह्मा विष्णुभी प्राप्त नहीं करसक्ते किन्तु हे जिनेन्द्र इनसमस्तबातोंको जानता हुवाभी मेस चित्त आपके समीपमें लगाया हुवाभी बाह्य पदार्थोंमें दौड़ २ कर जाता है यह बड़ा खेद है ॥ १२ ॥ संसारो बहुदुःखतः सुखपदं निर्वाणमेतत्कृते त्यक्त्वार्थादि तपोवनं वयमितास्तत्रोज्झितः संशयः । एतस्मादपि दुष्करव्रतविधेर्नाद्यापि सिद्धिर्यतो वाताली तरलीकृतं दलमिव भ्राम्यत्यदो मानसम्॥१३॥
अर्थ:-हे जिनेश यह संसास्तो नानाप्रकारके दुःखोंका देनेवाला है और वास्तिक सुखका स्थान है अथवा वास्तविक सुखका देनेवाला मोक्षहै इसलिये उसीमोक्षकी प्राप्तिकोलिये हमने समस्त धनधान्य आदि परिग्रहोंका त्याग किया और हम तपोवनकोभी प्राप्तहुवे तथा हमने समस्त प्रकारका संशय भी छोडदिया तथा अत्यंत बतभी धारण किये किन्तु अभीतक उनकठिनव्रतोंके धारणकरनेसेभी सिद्धिकी प्राप्ति नहीं हुई क्योंकि पवनके समूहसे कपाये हके पत्ते के समान यह हमारा मन. रातदिन बाद्यपदार्थों में भ्रमण करता रहता है ॥ १३ ॥
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