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पमनन्दिपञ्चविंशतिका । तत्राधिक्यं पथि निपतिता यत्किरत्सारमेयादक्त्रे मूत्रं मधुरमधुरं भाषमाणाः पिवन्ति ॥ २२ ॥
अर्थः-आचार्य कहते हैं कि मदिराके पीनेवालेमनुष्य यदि निर्लज्ज होकर अपनी माता को स्त्री मानें तथा उस के साथ नाना प्रकार की खोटी चेष्टा करें तो यह बात तो कुछ बात नहीं किन्तु सब से अधिक बात यह है कि मद्यके नशेमें आकर जब मार्गमें गिरजाते हैं तथा जिससमय उनके मुखमें कुत्ता मूतते हैं उसको मिष्ट २ कहते हुवे तत्काल गटक जाते हैं।
भावार्थः-जो मनुष्य मद्यपान करते हैं वे समस्त खोटीचेष्टा करते हैं तथा उनकी बुरी हालत होती है और उनको किसीप्रकार हितका मार्ग भी नहीं सूझता इस लिये विद्वानोंको इस निकृष्ट मद्यसे जुदाही रहना चाहिये ॥ २२ ॥ अब आचार्य दो श्लोकोंमें वेश्या व्यसनका निषेध करते हैं।
शार्दूल विक्रीड़ित ।। याः खादन्ति पलं पिवन्ति च सुरां जल्पन्ति मिथ्यावचःस्निह्यन्ति द्रविणार्थमेव विदधत्यर्थप्रतिष्ठाक्षतिम् । नीचानामपि दूरवक्रमनसः पापात्मिकाः कुर्वते लालापानमहर्निशं न नरकं वेश्यां विहायापरम् ॥ २३ ॥
अर्थः-जो सदा मांस खाती हैं तथा जो निरन्तर मद्यपान करती हैं और जिनको झूठ बोलने में अंशमात्र भी संकोच नहीं होता तथा जिनका क्षेह विषयीमनुष्योंकेसाथ केवल धनके ही लिये है और जो द्रव्य तथा प्रतिष्ठा को मूल से उड़ाने वाली हैं अर्थात् वेश्याकेसाथ संयोग करनेसे धन तथा प्रतिष्ठा दोनोंकिनारा कर जाते हैं तथा जिनके चित्त में सदा छल कपट दगाबाजी ही रहती है और जो अत्यन्त पापिनी हैं तथा जो धन के लाभ से अत्यन्त नीचधीवर चमार चाण्डाल आदि की लारका भी निरन्तर पान करती हैं ऐसी
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