________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kcbatrth.org
Acharya Shri Kalashsagarsuri Gyanmandir
॥२४॥
पवनन्दिपनाशतिका 1 से भिन्न वस्तुओंके सबंधसे रहित सदा एकरुपही विराजमान है॥ २०॥ त्यक्त्वा न्यासनयप्रमाणविवृतीः सर्वं पुनः कारक संवन्धं च तथा त्वमित्यहमितिप्रायान् विकल्पानपि सर्वोपाधिविवर्जितात्मनि परं शुद्धकवोधात्मनि स्थित्वा सिद्धिमुपाश्रितो विजयते सिद्धः समृागुणः ।
भावार्थ:--नाम स्थापना आदि निक्षेपको छोड़कर तथा नैगम आदिनयको त्यागकर और प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाणके व्यापारको छोड़कर और कर्ता कर्म करण आदि कारकोंको छोड़कर तथा समस्त्रसबंधको, और तू मैं, इत्यादि समस्त विकल्पोंको भी छोड़कर जोसिहभगवान समस्तप्रकारकी कर्म आदि उपाधियों से रहित होकर तथा शुद्ध और ज्ञानानन्द स्वरूप आत्मामें लीन होकर मोक्षको प्राप्त हुवेदबे समस्त अनन्त विज्ञान आदि गुणोंसे सदा वृद्धिको प्राप्त, सिद्ध भगवान सदा इसलोक में विशेषरीतिसे जयवंत है अर्थात् ऐसे सिडभगवान को में हाथ जोड़कर विशिष्टसतिसे नमस्कार करता हूं ॥ २१ ॥
तैरेव प्रतिपद्यतेऽत्र रमणीस्वर्णादिवस्तु प्रियं तत्सिदकमहः सदन्तरदृशा मन्देन यैदृश्यते । ये तचत्वरसप्रभिन्नहृदया स्तेषामशेषं पुनः साम्राज्यं तृणवद्धपुश्च परबद्धोगाश्च रोगाइव ।। २२ ॥
अर्थः--जिनमनुष्योंने अंतरंग दृष्टिसे उस अलौकिक सिद्धस्वरूपतेजको नहीं देखा है उन्ही मूर्खमनुष्योंको स्त्री सुवर्ण आदिक पदार्थ पिय मालूम पड़ते हैं किन्तु जिन भव्यजीवों का हृदय उन सिहोंके स्वरूप रूपी रससे भिंदगया है वे भव्यजीव समस्त साम्राज्यको तृप्पके समान जानते हैं तथा शरीरको पर (वैरी) समझते हैं और उनको भोम रोगके समान मालूम होते हैं।
भावार्थ:-जवतक मनुष्योंको वास्तविक पदार्थ दृष्टिगोचर नहीं होता तबतक वे अवास्तविक पदार्थीको भी वास्तविक मानते हैं किन्तु जिससमय उनकी दृष्टि वास्तविक पदार्थोंपर पड़ जाती है उससमय वे उसवा.
२४३
For Private And Personal