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पचनन्दिपञ्चविंशतिका सिद्धज्योतिरतीवनिर्मलतरं ज्ञानैकमूर्तिस्फुरदर्तिीपमिवोपसेव्य लभते योगी स्थिरं तत्पदम् । सद्वुझ्याथ विकल्पजालरहितस्तद्रूपतामाप तं स्तादृग्जायत एव देवविनुतत्रैलोक्यचूड़ामणिः ॥
अर्थ:-जिसप्रकार बत्ती स्फुरायमानदीपकके संगसे दीपपनेको प्राप्त होजाती है उसीप्रकार अत्यंतनिर्मल जोज्ञान उस ज्ञानस्वरूप स्फुरायमान है मूर्ति जिसकी ऐसी सिइज्योतिकी आराधना करनेसे मुनिगण भी उस || स्थिर सिद्धपदको प्राप्त होजाते हैं अथवा समस्तप्रकारके विकल्पोंसे रहितहोकर जो योगीश्वर श्रेष्ठबुद्धिसे उन सिद्धोंके स्वरूपको प्राप्तहोकर उनके खरूपका ध्यान करता है वह भी समस्तदेवों में वंदनीक तथा तीनलोकका चूडामाणि उन सिहोंके समानही होजाता है ॥ १२ ॥
सार्दूलविक्रीड़ित ।। यत्सूक्ष्मंच महच शून्यमपि यन्नो शून्यमुत्पद्यते नश्यत्येवच नित्यमेव च तथा नास्त्येव चास्त्येव यत्। एकं यद्यदनेकमेव तदपि प्राप्तं प्रतीतिं दृढां सिद्धज्योतिरमूर्ति चित्सुखमयं केनापि तल्लभ्यते ॥
अर्थ:-जो सिाहज्योति सूक्ष्म भी है और महान भी है शून्य भी है तथा शून्यनहीं भी है विनाशीक भी | है और नित्य भी है और है, भी है, नहीं भी है, तथा एक भी है अनेक भी है इसप्रकार अनेकधर्मको लिये हुए है तोभी स्याहादसे जिसकी प्रतीति दृढ़ है ऐसी अमूर्तीक तथा ज्ञानसुखखरूप सिहोंकी ज्योति (तेज) को संसारमें कोई एक मनुष्यही प्राप्तकरसक्ता है सब नहीं ।
भावार्थ:-सिद्धोंकी ज्योति सूक्ष्म तो इसलिये है कि वह अमृर्त है इसलिये कोई भी इन्द्रिय उसका प्रत्यक्ष नहीं करसक्ती, तथा महान इसलिये है कि समस्तलोकालोकके जाननेवाले केवलीभगवान उसको प्रत्यक्ष देखते हैं तथा पुद्गलादि परद्रव्य और उनके स्पर्श रस आदिगुणोंसे रहितहोनेके कारण तो शून्य हैं किन्तु सदा
000000000000000000000000000000000000004666रुका
m२३८॥
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