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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir 400000................................000000000000000 पचनन्दिपश्चाशतिका। अर्थः-जो सिह महाराज अपने समस्त कठोरकर्मरूपीवैरियोंको जीतकर अविनाशी सिद्धपदको प्राप्तहुवे हैं और जन्म जरा मरण आदिक अठारह दोष जिनके पासभी नहीं फटकने पाते तथा जो अनन्तज्ञानादिकरकिये हुवे अचिंत्य ऐश्वर्यके धारी हैं वे तीन जगतके शिखामणि सिद्धभगवान मेरे कल्याणके लिये हो अर्थात् ऐसे सिहोंको मैं नमस्कार करता हूं ॥ ४॥ सिद्धो बोधमिति स बोध उदितो ज्ञेयप्रमाणो भवेद् ज्ञेयं लोकमलोकमेव च वदत्यात्मति सर्वस्थितः। मुषायां मदनोभिते हि जठरेयाहङ्नमस्तादृशःप्राक्कायाकिमपि पहीण इति वा सिद्धः सदानन्दति। अर्थः-निष्कलंक वह शुद्वात्मा तो ज्ञान प्रमाण कहागया है और वह ज्ञान क्षेय (पदार्थ) प्रमाण है तथा बेजेय लोकालोक प्रमाण हैं इसलिये इसयुक्तिसे तो आत्मा समस्त जगहपर मौजूद है अर्थात व्यापक है किन्तु मनुष्याकार एक मोमकी पुतली बनाकर तथा उसके ऊपर मिट्टीका लेप चढ़ाकर, और उसपुतली को तपाकर मोम निकल जानेके पीछे जो उस मूषामें पुरुषाकार आकाश रहजाता है उसीप्रकार सिद्धावस्थाके प्रथमशरीरसे कुछ कमती आस्मप्रदेशोंके आकारस्वरूप भी वह शुद्धात्मा है अर्थात् अव्यापक भी है इसलिये व्यापकत्व अव्यापकत्व ऐसे दोनों धर्मोंकरसंयुक्त सिहपरमेष्टी सदा जयवंत है। भावार्थ:-सिहोंका ज्ञान लोकालोक के पदाथाका प्रकाश करनेवाला है तथा वह ज्ञान आत्माखरूप ही है इयलिये इस ज्ञानगुणकी अपेक्षासे तो सिद्धोकी आत्मा व्यापक है किन्तु सिडोंकी आत्माके प्रदेश चरमशरीरसे कुछ कमती रहते हैं इसलिये प्रदेशोंकी अपेक्षासे वह आत्मा चरमशरीरमे कुछ कमती भी है अतः व्यापक नहीं भी है ॥ ५ ॥ दृग्बोधौपरमौ तदावृतिहतेः सौख्यं च मोहक्षयात् वीर्य विघ्नविघाततो प्रतिहतं मूर्तिर्न नामक्षतेः॥ 16100...०००००००००००००................................... SUR३३M For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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