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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir " 01........................................ पचनन्दिपञ्चविंशतिका । अर्थः--भव्यजीव अणवत तथा महाव्रतको मोक्षकी प्राप्तिकलिये ही धारणकरते हैं किन्तु उनकेधारण करनेसे उनको अन्य कोई भी वस्तु साध्य नहीं है क्योंकि निश्चयनयसे जीवको मुखकी प्राप्ति मोक्षही होती है तथा मोक्षकी प्राप्तिकेलिये जो अणुव्रत महावत आदि व्रत आचरण कियेजाते हैं वे सफल समझे जाते हैं किन्तु जो व्रत मोक्षकी प्राप्तिकेलिये नहीं है संसारके ही कारण हैं वे दुःखखरूपही हैं यह भलिभाति स्पष्ट है इसलिये भव्यजीवों को मोक्षकेलिये ही व्रतोंको धारण करना चाहिये ॥ २६ ॥ देशवतोधननामकअधिकारको समाप्त करते हुवे आचार्य इसवतोद्योतननामक अधिकारका फल दिखाते हैयत्कल्याणपरम्परार्पणपरं भव्यात्मनां संसृतौ पर्यन्ते यदनन्तसौख्यसदनं मोक्षं ददाति ध्रुवम् ।। तज्जीयादतिदुर्लभं सुनरतामुख्यैर्गुणैः प्रापितं श्रीमत्पङ्कजनन्दिभिर्विरचितं देशव्रतोद्योतनम् ॥२॥ अर्थः-जो देशव्रतोद्योतन संसारमें भव्यजीवोंको इन्द्र चक्रवर्ती आदि समस्तकल्याणोंका देनेवाला है और सबसे अंतमें अनन्त सुखोंका भंडार जो मोक्ष उसका देनेवाला है तथा जिसकी प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ जो मनुष्यपना | आदि अनेकगुण उनसे होती है और जिसकी रचना श्रीपद्मनन्दिनामक आचार्यने की है ऐसा वह लतीचोतन चिरकाल तक इससंसार में जयवंत रहो। भावार्थ:-यह देशदेशव्रतोद्योतन क्रमसे इन्द्र अहमिन्द्र चकवर्ती आदि बड़े २ कल्याणोंको प्राप्तिकरा कर अंतमें मोक्षको देता है तथा मनुष्यपना उत्तम कुल आदि अनेकगुणोंसे ही उसकी प्राप्ति होती है और जिसकी रचना आचार्य श्रीपद्मनन्दिनेकी है ऐसा यह व्रतोद्योतन चिरकालतक इससंसार में जयवंत रहो ॥२७॥ इसप्रकार इसपद्मनन्दिपंचविंशतिकामें देशव्रतोद्योतननामक अधिकार समाप्त हुवा । - - +++++ 0 For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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