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पन्ननन्दिपश्चविंशतिका । अर्थः-अनंतकालके बीत जानेपर इससंसारमें वड़ी कठिनतासे मनुष्यजन्मके मिलनेपर तथा सम्यग्दर्शनके प्राप्तहोनेपर उत्तमपुरुषोंको मोक्षको देनेवाला तप अवश्य करना चाहिये यदि लोकनिन्दासे अथवा प्रवलचारित्रमोहनीयकर्मके उदयसे वा असमर्थपनेसे तप न होसके तो गृहस्थोंके देवपूजा गुरुसेवा स्वाध्याय आदि षट्कर्मोंके योग्य व्रततो अवश्यही करना चाहिये ।
भावार्थ:-इससंसारमें प्रथमता निगोदादिसे निकलनाही अत्यंतकठिन है दैवयोगसे यदि वहांसे निकलभी आवे तो यहां आकार पृथ्वीकायिक तथा जलकायिक आदि एकेन्द्रीस्थावरजीव होते हैं जसपर्याय नहीं मिलती यदि वहभी मिलजावे तो उसत्रसपर्यायमें मनुष्यपर्यायकी प्राप्ति बड़ी कठिनतासे होती है यदि वहभी मिलजावे तो जीवादिपदार्थीका श्रद्धानरूपसम्यग्दर्शन नहीं मिलता यदि वहभी मिल जावे तो मनुष्य उसकी रक्षाकरने में बड़ाभारी प्रमाद करता है इसलिये वह पाया हवामी न पाये हुवेके समान हो जाता है अतःआचार्य उपदेश देते हैं कि बड़े भाग्यसे यदि मनुष्यजन्म तथा सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होजावे तो उत्तम पुरुषों को प्रमाद छोड़कर तपकरना चाहिये यदि लोकनिन्दा, अथवा प्रवलचारित्रमोहनीयकर्मके उदयसे वा असमर्थपनेसे तप न होसके तो षट्कर्मके योग्य श्रावकोंके व्रततो अवश्यही धारण करना चाहिये किन्तु पाये हुवे मनुष्यजन्मको तथा सम्यग्दर्शनको व्यर्थ नहीं खोना चाहिये ॥ ४ ॥ अब आचार्य श्रावकके व्रतोंको बतलाते हैं तथा वे व्रत गृहस्थोंको पुण्यके करनेवाले होते
हैं इसबातकोभी आचार्य बतलाते हैं। दृङ्मूलव्रतमष्टधा तदनु च स्यात्पञ्चधाणुव्रतं शीलाख्यं च गुणवतं त्रयमतः शिक्षाश्चतस्रः पराः । रात्रौ भोजनवर्जनं शुचिपटात्पेयं पयः शक्तितः मौनादिवतमप्यनुष्ठितमिदं पुण्याय भव्यात्मनाम् ।।
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