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Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पयनन्दिपश्चविंशतिका । मनुष्योंकी प्रवृत्ति है उन्ही मनुष्योंको निर्मलधर्मकी प्राप्ति होती है इसलिये इसनिर्मलधर्मकी प्राप्तिके अभिलाषी भव्यजीवोंको इसके अनुकूल ही प्रवृत्ति करनी चाहिये ॥ १२ ॥ इसप्रकार श्रीपद्मनन्दिपश्चविंशतिकामें उपासकसंस्कार ( श्रावकाचार )
नामक अधिकार समाप्तहुवा ।
देशव्रतोद्योतनम् ।
शार्दूलविक्रीड़ित । वाह्याभ्यन्तरसङ्गवर्जनतया ध्यानेन शुक्लेन यः कृत्वा कर्मचतुष्टयक्षयमगात्सर्वज्ञतां निश्चिताम् । तेनोक्तानि वचांसि धर्मकथने सत्यानि नान्यानि तद्भ्राम्यत्यत्र मतिस्तु यस्य स महापापी न भव्योऽथवा
अर्थः--समस्त वाह्य तथा अभ्यंतर परिग्रहको छोड़कर और शुक्लध्यानसे चारधातियाकर्मीको नाशकर जिसने सर्वज्ञपना प्राप्त करलिया है उसी सर्वज्ञदेवके वचन, धर्मके निरूपण करने में सत्य है, किंतु सर्वज्ञसे अन्यके वचन सत्यनहीं है ऐसा भलीभांति जानकर भी जिसमनुष्यको सर्वज्ञदेवके वचनोंमें सन्देह है तो समझना चाहिये वह मनुष्य महापापी तथा अभव्य है॥१॥ एकोप्यत्र करोति यःस्थितिमतिं प्रीतः शुचौ दर्शने सश्लाघ्यः खलु दुःखितोप्युदयतो दुष्कर्मणः प्राणिभृत। अन्यैः किं प्रचुरैरपि प्रमुदितैरत्यन्तद्रीकृतस्फीतानन्दभरप्रदामृतपथेमिथ्यापथप्रस्थितैः ॥ २॥
अर्थः-खोटेकर्मके उदयसे दुःखितभी जो मनुष्य संतुष्टहोकर इसअत्यन्तपवित्र सम्यग्दर्शनमें निचल स्थितिको करता है अर्थात् सम्यग्दर्शनको धारण करता है वह अकेलाही अत्यंत प्रशंसाके योग्य समझा
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