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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पचनन्दिपश्चविंशतिका । और इसबोधिकी प्राप्ति संसारमें अत्यंतकठिन है यदि किसीरीतिसे उसकी प्राप्तिभी हो जावे तो उसकी रक्षाकेलिये विद्वानोंको प्रवलयन करना चाहिये । भावार्थ:-अनन्तजीव ऐसे हैं जोकि अभी निगोदमें ही पडेहुए हैं उन्होंने सिवाय निगोदके दूसरी पर्यायही नहीं धारणकी है इसलिये प्रथम तो निगोदसे निकलनाही अत्यंत दुःसाध्य है दैवयोगसे यदि निगोदसे निकल भी आवे तो आकर पृथ्वीकायिक आदि स्थावरजीव होते हैं इसलिये त्रस पर्याय पाना अत्यंत दुर्लभ है यदि त्रस पर्याय भी मिलजावे तो पश्चन्द्री होना अत्यंत कठिन है यदि पंचेन्द्री भी होगये तो सैनी (समनस्क) होना दुःसाध्य है सैनीभी हुए तो मनुष्यभव तथा उच्चकुंलपाना कठिन है यदि वेभी मिलगये तो चिरायु होना तथा धनवान होकर सुखी होना दुःसाध्य है यदि यह सब सामिग्री भी मिलगई तो रत्नत्रयकी प्राप्ति अत्यंत दुर्लभ है तथा भाग्यसे कईएक पुरुषोंको इसकी प्राप्तिभी होजावे तो वे प्रमादके वशीभूतहोकर इसकी रक्षा नहीं करसक्त इसलिये इसप्रकार अत्यंतकठिन इसरत्नत्रयको पाकर भव्यजीवोंको कदापि प्रमाद नहीं करना चाहिये तथा भलीभांति इसरत्नत्रयकी रक्षा ही करनी चाहिये इसप्रकारका चितवन करना दुर्लभानुप्रेक्षा है ॥ ५५ ॥ धर्मानुप्रेक्षाका वर्णन । निजधर्मोयमत्यन्तं दुर्लभो भविनां मतः । तथा ग्राह्यो यथा साक्षादामोक्षं सह गच्छति ।। ५६ ॥ अर्थः-संसारमें प्राणियोंको ज्ञानानंदस्वरूप निजधर्मका पाना अत्यंत कठिन है इसलिये यह धर्म ऐसी रीतिसे ग्रहण करनाचाहिये कि मोक्षपर्यत यह साथही बना रहे । 000000000000000000000000000000000000000000000000000000046 For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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