________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
पवनन्दिपश्चविंशतिका । अशरणभावनाके स्वरूपका वर्णन । व्याघेणाघातकायस्य मृगशावस्य निर्जने ।
यथा न शरणं जन्तोः संसारे न तथापदि ॥ ४६॥ अर्थः-जिस मृगके बच्चेका शरीर व्याघने प्रबलरीतिसे पकड़ लिया है ऐसे मृगके बच्चेको जिस प्रकार निर्जनबनमें कोई बचानेकेलिये समर्थ नहीं है उसीप्रकार इससंसारमें आपत्तिके आनेपर जीवको भी कोई इन्द्र अहमिन्द्र आदि नहीं बचा सक्ते इसलिये भव्यजीवोंको सिवाय धर्मके किसीको भी रक्षक नहीं समझना चाहिये।॥४६॥
संसारभावनाका स्वरूप । यत्सुखं तत्सुखाभासो यददुःखं तत्सदअसा ।
भवे लोक सुखं सत्यं मोक्षएव स साध्यताम् ॥ ४७॥ अर्थः-हे जीव संसारमें जो सुख मालूम होता है वह सुख नहीं है सुखाभास है अर्थात् सुखके समान मालूम पड़ता है और जो दुःख है सो सत्य है किन्तु वास्तविकसुख मोक्षमें ही है इसलिये तुझे मोक्षकी प्राप्तिकेलियेही प्रयत्न करना चाहिये ॥ ४७ ॥
एकखभावनाका स्वरूप । खजनोवा परोवापि नो कश्चित्परमार्थतः।।
केवलं स्वार्जितं कर्म जीवेनैकेन भुज्यते ॥ १८ ॥ अर्थ:- यदि निश्चयरीतिसे देखा जावे तो संसारमें जीवका न तो कोई स्वजन है और न कोई परजनही है तथा यह जीव अपने कियेहुवे कर्मके फलको अकेलाही भोगता है ॥ ४८ ।।
॥२०९
For Private And Personal