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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पचनन्दिपश्चविंशतिका प्राप्ति होती है इसलिये यह्दया संपदाओंका स्थान है और इसीदयासे समस्तगुणोंकी प्राप्ति होती है इसलिये यहदया गुणोंका खजाना है अतः जो मनुष्य हित तथा अहितके जाननेवाले हैं उनको ऐसी उत्तमदथा प्राणियों में अवश्य करनी चाहिये किंतु दयासे पराङ्मुखकदापि नहीं रहना चाहिये ॥ ३८ ॥ सर्वे जीवदयाधारा गुणास्तिष्ठन्ति मानुषे सूत्राधारा: प्रसूनानां हाराणां च सराइव ॥३९॥ अर्थः--जिसप्रकार फूलोंके हारोंकीलडी सूत्रके आश्रयसे रहती हैं उसीप्रकार मनुष्य में समस्तगुण जीव दयाके आधारसे रहते हैं इसलिये समस्तगुणोंकी स्थितिके अभिलाषी भव्यजीवोंको यदया अवश्य करनी चाहिये ॥३९॥ यतीनां श्रावकाणां च व्रतानि सकलान्यपि एकाऽहिंसाप्रसिद्ध्यर्थं कथितानि जिनेश्वरैः ॥४०॥ अर्थः-जितनेभर मुनियोंके व्रत तथा श्रावकोंके व्रत सर्वज्ञदेवने कहे हैं वे सर्व अहिंसाकी प्रसिद्धिके लियेही कहे हैं किन्तु हिंसाका पोषण करनेवाला उनमें कोई भी व्रत नहीं कहागया है इसलिये व्रतीमनुष्योंको समस्तप्राणियोंपर दयाहीरखनी चाहिये ॥ ४० ॥ जीवहिंसादिसंकल्पैरात्मन्यपि हि दूषिते पापं भवति जीवस्य न परं परपीडनात् ॥४१॥ अर्थः-केवल अन्य प्राणियोंको पीड़ा देनेसही पापकी उत्पत्ति नहीं होती कि “उसजीवको मारूंगा अथवा वह जीव मरजावे तो अच्छा हो" इत्यादि जीवहिंसाके संकल्पोंसे जिससमय आत्मा मलिन होता है उससमयभी पापकी उत्पत्ति होती है इसलिये उत्तममनुष्योंको जीवहिंसाका संकल्पभी नहीं करना चाहिये ॥४१॥ +00000000000000000000000000000000000000000000000000000 ॥२०७॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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