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Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पानान्दपञ्चविंशतिका । तत्वाभ्यासः स्वकीयनतिरतिरमलं दर्शनं यत्र पूज्यं तद्गार्हस्थ्यं बुधानामितरदिह पुनर्दुःखदो पोहपाशः१३१
अर्थः-तथा जिस गृहस्थाश्रममें जिनेन्द्रभगवानकी पूजा उपासना की जाती है तथा निग्रंथगुरुओकी भक्ति सेवा आदि की जाती है और जिस गृहस्थाश्रममें धर्मात्मापुरुषोंका परस्परमें स्नेहसे वीव होता है तथा मुनि आदि उत्तमादिपात्रोंको दान दिया जाता है तथा दुःखी दरिद्रियों को जिस गृहस्थाश्रममें करुणासे दान | दिया जाता है और जहांपर निरन्तर जीवादि तत्वोंका अभ्यास होता रहता है तथा अपने २ व्रतोंमें प्रीति रहती है और जिस गृहस्थाश्रममें निर्मल सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होती है वह गृहस्थाश्रम विद्वानों के द्वारा पूजनीक होता है किन्तु उससे बिपरीत इस संसारमें केवल दुःख का देनेवाला है तथा मोह का जाल है ॥१३॥
अब आचार्य श्रावकोंकी ग्यारह प्रतिमाओंके नाम बताते हैंआदौ दर्शनमुन्नतं व्रतमितः सामायिक प्रोषधस्त्यागश्चैव सचित्तवस्तुनि दिवाभक्तं तथा ब्रह्म च । नारम्भो न परिग्रहोऽननुमतिर्नोद्दिष्टमेकादशस्थानानीति गृहिव्रते व्यसनितात्यागस्तदाद्यः स्मृतः ॥१४॥
अर्थः-सबसे पहले जीवादिपदार्थोंमें शंकादिदोषरहित श्रद्धानरूपसम्यग्दर्शनका जिसमें धारण होवे उसको दर्शनप्रतिमा कहते हैं तथा अहिंसादि पांच अणुव्रत तथा दिग्वतादि तीन गुणव्रत और देशावकाशिकादि चारशिक्षाव्रत इसप्रकार जिसमें बारहव्रत धारण किये जावे वह दूसरी व्रतप्रतिमा कहलाती है २ तथा तीनोंकालोंमें समता धारण करना सामायिकप्रतिमा है ३ और अष्टमी आदि चारोपोंमें आरम्भरहित उपवास करना चौथी प्रोषधप्रतिमा है ४ तथा जिस प्रतिमामें संचित्त वस्तुओंका भोग न किया जाय उसको सचित्तत्याग नामक पांचवींप्रतिमा कहते हैं ५। तथा जिस प्रतिमाके धारण करने में रात्रिभोजनका सर्वथा निषेध किया गया है उसको रात्रिभुक्तत्यागप्रतिमा कहते हैं ॥ ६ ॥
॥८॥
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