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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir 100.0.0.0.00000000000000000000000144++++++++++++++ पचनन्दिपश्चविंशतिका । पद् आवश्यकर्म । देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानश्चेति गृहस्थानां षद् कर्माणि दिने दिने ।। ७ ॥ अर्थ:--जिनेन्द्रदेवकी पूजा और निर्ग्रन्थगुरुओंकासेवा तथा स्वाध्याय और संयम तथा योग्यतानुसार तप और दान ये छै कर्म श्रावकोंको प्रतिदिन करने योग्य है ॥ ७ ॥ सामायिकका लक्षण । समता सर्वभूतेषु संयमे शुभभावना। आर्तरोद्रपरित्यागस्तद्धि सामायकंचतम ॥८॥ अर्थः-समस्तप्राणियों में साम्यभावरखना तथा संयमधारणकरने में अच्छीभावना रखना और आर्तध्यान तथा रौद्रध्यानका त्याग करना इसीका नाम सामायिकत्रतहै ॥ ८ ॥ सामायिकं न जायेत व्यसनम्लानचेतसः। श्रावकेन ततः साक्षात्त्याज्यं व्यसनसप्तकम् ॥ ९ ॥ अर्थः-जिनमनुष्योंका चित्त व्यसनोंसे मलिन होरहा है उनके कदापि यह सामायिक व्रत नहीं होसक्ता इसलिये सामायिकके आकांक्षी श्रावकोंको सातो व्यसनोंका सर्वथा त्यागकरदेना चाहिये ॥ ९ ॥ सातव्यसनोंके नाम । द्यूतमांससुरावेश्याखेटचौर्यपराङ्गनाः । महापापानि ससैव व्यसनानि त्यजेद्बुधः ॥१०॥ म॥१९॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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