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॥ १८९॥
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पचनन्दिपञ्चविंशतिका ।
और आत्मा के संबन्धसे जो कुछ बिकार हुवा है वह भी मुझसे भिन्न है और काल क्षेत्र आदिक जो पदार्थ है वे भी मुझसे भिन्न है इसप्रकार अपने २ गुण तथा अपनी २ पर्यायोंसे सहित जितने भर पदार्थ है सर्व मुझ से भिन्नही भिन्न है इसप्रकार ज्ञानीसदा विचार करता रहता है ॥ ७९ ॥
बसन्ततिकका ।
येऽभ्यासयन्ति कथयन्ति विचारयन्ति सम्भावयन्ति च मुहुर्मुहुरात्मतत्वम् । ते मोक्षमक्षयमनूनमनन्तसौरव्यं क्षिप्रं प्रयान्ति नवकेवललब्धिरूपम् ॥ ८० ॥
अर्थः- आचार्य उपदेश देते हैं कि जो भव्यजीव उस आत्मतत्वका बारंबार अभ्यास करते हैं और कथन करते हैं तथा विचार और अनुभव करते हैं वे भव्यजीव अविनाशी, और महान् तथा अनन्त दर्शन, क्षायक ज्ञान, और क्षायक चारित्र, आदि नौ केवललब्धिस्वरूपसुखके भण्डार ऐसे मोक्षपदको बात की वातमें पालेते है इसलिये भव्यजीवोंके सदा इसआत्मतत्वका चितवन करना चाहिये ॥ ८० ॥
इसप्रकार श्रीपद्मनन्दिआचार्य विरचित पद्मनन्दिपञ्चविंशतिकामें एकत्व सप्तति नामक अधिकार समाप्त हुवा ॥
यतिभावनाष्टक
आदाय व्रतमात्मतत्वममलं ज्ञात्वाथ गत्वा वनं निश्शेषामपि मोहकर्मजनितां हित्वा विकल्पाबलिम् । ये तिष्ठन्ति मनोमरुच्चिदचलैकत्वप्रमोदं गताः निष्कम्पा गिरिवज्जयन्ति मुनयस्तेसर्वसङ्गोज्झिताः ॥१॥ अर्थः व्रतको ग्रहणकर, तथा निर्मल आत्माके स्वरूपको जानकर, और वनमें जाकर, तथा मोहकर्म
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