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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । संसारे भ्रमतश्चिरं तनुभृतः के के न पित्रादयो जातास्तद्धमाश्रितेन खलु ते सर्वे भवन्त्याहताः। नन्वात्मापि हतो यदत्र निहतो जन्मान्तरेऽपि ध्रुवं हन्तारं प्रतिहन्ति हन्त बहुशः संस्कारतो ना कुधः॥९॥
अर्थः-चिरकालसे संसारमें भ्रमण करते हुवे इसदीनप्राणीके कौन कौन माता पिता भाई आदिक नहीं हुवे ? अर्थात् सर्व ही हो चुके इसलिये यदि कोई प्राणी किसी जीवको मारे तो समझना चाहिये कि उसने अपने कुटुम्बीको ही मारा तथा अपनी आत्माकाभी उसने घात किया क्योंकि यह नियम है जो मनुष्य किसी दीन प्राणीको एकबार मारताहै उससमय उस मरेहुवे जीवके क्रोधादिकी उत्पत्ति होती है तथा जन्मान्तरमें उसका संस्कार बैठा रहता है इसलिये जिससमय कारण पाकर उसमृतप्राणीका संस्कार प्रकट होजाता है उस समय वह हिंसकको (अर्थात् पूर्वभवमें अपने मारनेवाले जीवको) अनेक बार मारता है इसलिये ऐसे दुष्ट हिंसकलिये धिक्कार हो ॥९॥ त्रैलोक्यप्रभुभावतोऽपि सहजोऽप्येकं निजं जीवितं प्रेयस्तेन विना स कस्य भवितेत्याकांक्षतःप्राणिनः। निम्शेषव्रतशीलनिर्मलगुणाधारात्ततो निश्चितं जन्तोर्जीवितदानतत्रिभुवने सर्वप्रदानं लघु ॥ १० ॥
अर्थः-यदि किसी दरिद्रीसे भी यह बात कही जावे कि भाई तू अपने प्राणदेदे तथा तीनलोककी संपदा लेले तच वह यही कहताहै कि यदि मैं ही मरजाऊंगा तो उस संपदाको कौन भोगेगा। अतःतीनलोककी संपदासे भी प्राणियोंको अपने प्राण प्यारे हैं। इसलिये समस्त व्रत तथा शीलादि निर्मलगुणोंका स्थानभुत जो यह प्राणीका जीवितदान है उसकी अपेक्षा संसारमें सर्वदान छोटे हैं यह बात भलीभांति निश्चित है।
भावार्थः-अहार १ औषधि अभय तथा शास्त्र इसप्रकार दानके चारभेद हैं उन सबमें अभयदान सब से उत्कृष्ट दान माना गया है तथा अभयदान उसही समय पल सक्ता है जब किसी जीवके प्राण न दुखाये जाय इसलिये इसउत्चमअभयदानके आकांक्षी मनुष्योंको किसी भी जीवकी हिंसा नहीं करनी चाहिये॥१०॥
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