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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥१५३॥ www.kobatirth.org पचनन्दिपञ्चविंशतिका । अर्थः——मन, वचन, कायकी चेष्टासे चेष्टानुसारकर्म वृद्धिको प्राप्तहोता है इसलिये मोक्षाभिलाषी भव्य पुरुष मन, वचन, कायसे भिन्न एक चैतन्यमात्र आत्माकी ही उपासना करते हैं ॥३०॥ बेततो द्वैतमद्वैतादद्वैतं खलु जायते । लोहा लोहमयं पात्रं हेम्नोहेममयं यथा ॥ ३१ ॥ अर्थः-जिसप्रकार लोहसे लोहमयी ही पात्र की उत्पत्ति होती है तथा सुवर्णसे सुवर्णमयीही पात्रकी उत्पत्ति होती है उसीप्रकार द्वैतसे निश्चयसे द्वैतही होता है तथा अद्वैतसे अद्वैत ही होता है ॥ भावार्थः —— कर्म तथा आत्माके मिलापका नामद्वैत है अतः जवतक कर्म तथा आत्माका मिलाप रहेगा तवतक तो संसारी ही रहेगा किन्तु जिससमय कर्म तथा आत्माका मिलाप छूट जावेगा तब मुक्त होजावेगा ॥ निश्चयेन तदेकत्वमद्वैतममृतं परम् । द्वितीयेन कृतं द्वैतं संसृतिर्व्यवहारतः ॥ ३२ ॥ अर्थः—निश्चयनयसे तो एकतारूप जो अद्वैत है वही मोक्ष है और व्यवहार नयसे कर्मोंकर किया हुवा जो हैत है वह संसार है ॥ भावार्थः—जबतक कमाँका संबंध रहता है तबतक तो संसार है किन्तु जिससमय कर्मोंका संबंध छूट जाता है उससमय मोक्ष है ॥ ३२ ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir वंधमोक्षौ रतिद्वेषौ कर्मात्मनौ शुभाशुभौ । इति द्वैताश्रिता वुद्धिरसिद्धिरभिधीयते ॥ ३३ ॥ अर्थः-- वंध और मोक्ष राग और द्वेष कर्म और आत्मा शुभ और अशुभ इसप्रकार द्वैतकर सहितजो For Private And Personal ॥१७३॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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