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पअनन्दिपश्चविंशतिका । धान्योंको पैदा करती है उसीप्रकार " अनित्यपश्चाशत् " भी शोकको नाशकरने वाली है अर्थात् इसके पढ़नेसे उत्तममनुष्यको किसी प्रियसे प्रिय पदार्थके नाशहोनेपर भी शोक नहीं होता तथा मुनीन्द्र श्री पद्मनन्दीने इसका प्रतिपादन किया है और यह श्रेष्टज्ञानको देनेवाली है इसलिये भव्यजीवों को इसका मनन अवश्य करना चाहिये ॥ ५५ ॥
इसप्रकार श्रीपानन्दीआचार्यद्वारा रचित श्रीपानन्दिपञ्चविंशतिकामें
अनित्यपश्चाशत् नामक अधिकार समाप्तहुवा ॥
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एकत्वसप्ततिः।
अनुष्टुप । चिदानन्दैकसदभावं परमात्मानमव्ययम् ।
प्रणमामि सदा शान्तं शान्तये सर्वकर्मणाम् ॥ १॥ अर्थः-चैतन्यस्वरूप आनन्दस्वरूप अविनाशी और शान्त ऐसेपरमात्माको सर्वकार्मोंकी शान्तिके लिये मैं नमस्कार करता हूं ॥
भावार्थ:-जो परमात्मा चैतन्यस्वरूप है तथा आनन्दस्वरूप है और नित्य शश्वत तथा समस्त क्रोधादिकर्मोंसे रहित है ऐसा परमात्मा मुझे इस एकत्वनामकअधिकारके वर्णन करनेमें शांति प्रदानकरै ॥१॥
खादिपञ्चकनिर्मुक्तं कर्माष्टकविवजितम्।। चिदात्मकं परंज्योतिर्वन्दे देवेन्द्रपूजितम् ॥ २॥
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