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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । शिखरिणी ।
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स्वकर्मव्याघ्रेण स्फुरितनिजकालादिमहसा समाघ्रातः साक्षाच्छरणरहिते संसृतिवने । प्रिया मे पुत्रा मे द्रविणमपि मे मे गृहमिदं वदन्नेवं मे, में, पशुरिव जनो याति मरणम् ॥ ४९ ॥ अर्थः — जिसमें कोई शरण नहीं है ऐसे वनमें वलवान व्याघ्रसे पकड़ा हुवा दीन पशु जिसप्रकार मे, मे, करके मर जाता है उसीप्रकार शरणरहित इससंसाररूपीवनमें अपने काल आदि वलसंयुक्त कर्मरूपी व्याघ्रसे पकड़ा हुवा यहजन स्त्री मेरी है पुत्र मेरे हैं धन मेरा है यह घर मेरा है इसप्रकार मे, मे करता २ व्यर्थ मरजाता है इसलिये विद्वानोंको कदापि किसी पदार्थ में ममत्वबुद्धि नहीं रखनी चाहिये ॥ ४९ ॥
वसन्ततिलका |
दिवानि खण्डानि गुरूणि मृत्युना विहन्यमानस्य निजायुषोभृशम् । पतन्ति पश्यन्नपि नित्यमग्रतः स्थिरत्वमात्मन्यभिमन्यते जड़ः ॥ ५० ॥ अर्थः— मृत्युसे नष्ट कियेहुवे अपने आयुके बड़े २ टुकड़े स्वरूप ये दिन सदा आगे आकर पड़ते हैं अर्थात् आयुके दिन प्रतिदिन क्षीण होते चलेजाते हैं इसवातको देखता हुवा भी यह अज्ञानी जीव अपनेको निश्चल अविनाशी मानता है यह बड़ा आश्चर्य है ॥ ५० ॥
शार्दूलविक्रीडित ।
कालेन प्रलयं व्रजन्ति नियतं तेऽपीन्द्रचन्द्रादयः का वार्तान्यजनस्य कीटसदृशोऽशक्तेरदीर्घायुषः । तस्मान्मृत्युमुपागते प्रियतमे मोहं मुधा मा कृथाः कालः क्रीड़ति नात्र येन सहसा तत्किञ्चिदन्विष्यताम अर्थः- जब बड़ी २ ऋद्धके धारी इन्द्र चन्द्र सूर्य आदिक भी अपने कालके आने पर मरजाते हैं
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