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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १०.००००००००००००००००००००००००0000000000000000000000000000. www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पचनन्दिपश्चविंशतिका । मीनादयश्च जल एव यमस्तु याति सर्वत्र कुत्र भविनां भवति प्रयत्नः ॥ ३१॥ अर्थः-चन्द्र, सूर्य, पवन, पक्षी, आदिक तो आकाशमें ही चलते हैं तथा गाढ़ी, सिंह, व्याघ्र आदिक जमीन पर ही चलते हैं और मछली मगर आदिक जलमें ही चलते हैं परन्तु यह काल ( यम ) सब जगह पर चलता है अर्थात् यह काल प्राणियों को पृथ्वी जल आकाश अग्नि आदि किसी स्थानपर नहीं छोडता फिर इससे बचनेका प्रयत्न किया जावे तो कहां किया जावे ? ॥ ३१ ॥ शार्दूलविक्रीड़ित । किं देवःकिमु देवता किमगदोविद्यास्ति किं किं मणिःकिं मन्त्रःकिमुताश्रयःकिमुसुहत्किवासुगन्धोऽस्ति सः। अन्येवा किमु भूपतिप्रभृतयः सन्त्यत्र लोकत्रये यैः सर्वैरपि देहिनः स्वसमये कर्मोदितं वार्यते ॥३२॥ अर्थः-तीनोंलोकमें भी देव, देवी, वैध, विद्या मणि, मंत्र, भृत्य, मित्र, सुगन्ध, तथा राजा, आदिक एक २ की तो क्याबात सब मिलकरभी अपने समयमें उदय आये हुवे प्राणियोंके कर्मको नहीं रोकसक्त ॥ भावार्थ:-जो कर्म पूर्वकालमें बांधा है वह अपने समय पर नियमसे उदयमें आता है तथा वलवान् से बलवान भी देव आदिक कोई भी उसका निवारण नहीं करसक्ता ऐसा भलीभांति समझकर विद्वान् कदापि शुभअशुभकर्मके उदय होनेपर हर्ष विषाद नहीं करते ॥ ३२ ॥ गीर्वाणा अणिमादिसुस्थमनसः शक्ता किमत्रोच्यतेध्वस्तास्तेऽपि परम्परेण स परस्तेभ्यःकियानराक्षसः।। | रामाख्येन च मानुषेण निहितः प्रोल्लंध्य सोप्यम्बुर्षि रामोप्यन्तकगोचरः समभवत्कोऽन्यो वलीयान्विधेः अर्थः-विशेष कहांतक कहाजाय क्योंकि जोदेव अणिमा महिमा आदि डिकेधारी ये तथा सबमकार से समर्थथे उनको भी उस रावण नामक राक्षसने विध्वंस कर दिये जो कि रावण उनदेवों के सामने कुछ भी ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀. ܀܀܀܀ ܘ܀܀ܬܗ ܀܀܀܀ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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