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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पचनन्दिपश्चविंशीतका । मालवीवृत्त । भ्रमति नभसि चन्द्रः संसृतौ शश्वदङ्गी लभत उदयमस्तं पूर्णता हीनताच । कलुषितहृदयः सन् याति राशिं च राशेस्तनुमिह तनुतस्तत्कोत्र मोदश्च शोकः ॥ २५ ॥ अर्थः--जिसप्रकार चन्द्रमा सदा आकाशमें भ्रमण करता रहता है उसहीप्रकार यहप्राणी भी निरंतर संसारमें एकगतिसे दूसरी गतिमें भ्रमण करता रहता है तथा जिसप्रकार चन्द्रमा उदित होता है तथा अस्त होता है उसीप्रकार यहप्राणीभी जन्मता तथा मरता है तथा जिसप्रकार चन्द्रमा बढ़ता और घटता है उसी प्रकार यह प्राणीभी वालपनेको तथा युवापनेको और वृद्धपनेको प्राप्त होता है तथा जिसप्रकार चंद्रमा कलंकित होकर मीन आदि राशिसे कर्क आदि राशिकोप्राप्त होता है उसीप्रकार यहप्राणीभी कलुषित चित्तहोकर एक शरीरसे दूसरे शरीरको धारण करता है इसलिये भव्यजीवोंको संसारकी ऐसी वास्तविक 'स्थितिको' भली भांति जानकर जन्ममरणमें कदापि हर्ष तथा शोक नहीं मानना चाहिये ॥ २५ ॥ तडिदिव चलमेतत्पुत्रदारादिसर्व किमिति तदभिधाते खिद्यते बुद्धिमद्भिः। स्थितिजननविनाशं नोष्णतेवाऽनलस्य व्यभिचरति कदाचित्सर्वभावेषु नूनम् ॥ २६॥ अर्थः-संसारमें पुत्र स्त्री आदिक समस्तपदार्थ विजलीके समान चंचल तथा विनाशीक है इसलिये | स्खी पुत्र आदिके नाश होनेपर बुद्धिमानोंको कदापि शोक नहीं करना चाहिये क्योंकि जिसप्रकार आग्नमें उष्णपना सर्वदा रहता है उसीप्रकार समस्तपदार्थों में उत्पाद विनाश तथा ध्रौव्य ये तीनों धर्म सदा रहते हैं। भावार्थ:-यद्यपि द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा सर्व वस्तु नित्य है किन्तु पर्यापार्थिकनयकी अपेक्षा तो सब पैदा भी होती है तथा नष्ट भी होती है इसलिये पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षा जव सर्वपदार्थोंका उत्पन्न ........०००००००००००००००००००.0000000000000000000000000001 ॥१४॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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