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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir . ॥१४॥ पचनन्दिपत्रपिंचतिका । | आदिके मरजाने पर उनकेलिये शोक करना भी विना प्रयोजनका है इसलिये विद्वानोंको उनकोलिये कदापि शोक नहीं करना चाहिये ।। १०॥ ये मूर्खा भुवि तेऽपि दुःखहतये व्यापारमातन्वते सा माभूदथवा स्वकर्मवशतस्तस्मान्न ते तादृशाः । मुखान्मूर्खशिरोमणीन्ननु वयं तानेव मन्यामहे ये “कुर्वन्ति” शुचं मृते सति निजे पापाय दुखाय च ॥ अर्थः-आचार्य कहते हैं कि अपने कर्मके वशसे, चाहे दुःखोंकी निवृत्तिहो अथवा न हो तो भी जो दुःखकी निवृत्तिके लिय व्यापार करते हैं यद्यपि वे भी संसारमें मूर्ख हैं तो भी हम उनको अतिमूर्ख नहीं मानते किन्तु जो अपने प्रिय स्त्री पुत्र आदिके मरनेपर पापकोलये अथवा दुःखोंकी उत्पत्तिके लिये शोक करते हैं उन्हींको निश्चयसे हम मूर्खशिरोमणि अर्थात् वज्रमूर्ख मानते हैं इसलिये विद्वानोंको स्त्री पुत्र आदिके मरने पर कदापि शोक नहीं करना चाहिये ॥ ११ ॥ और भी आचार्य शिक्षा देते हैं। शार्दलविक्रीड़ित । किं जानासि न कि शृणोषि नन किं प्रत्यक्षमेवेक्षसे निश्शेषं जगदिन्द्रजालसदृशं रम्भेव सारोशितम् । किं शोकं कुरुक्षेत्र मानुषपशो लोकान्तरस्थे निजे तत्किञ्चित् कुरु येन नित्यपरमानन्दास्पदं गच्छसि ॥ अर्थ:-हे मूढमनुष्य यहसमस्तजगत इन्द्रजालके समान अनित्य है तथा केलाके स्तम्भके समान निस्सार है इस वातको क्या तू नहीं जानता है अथवा सुनता नहीं है वा प्रत्यक्ष देखता नहीं है जो कि स्त्री पुत्र आदिके दूसरे लोकमें रहने पर भी तू उनकेलिये इससंसारमें व्यर्थ शोक करता है कोई ऐसा कामकर जिससे तुझै अविनाशी तथा उत्तम सुखके देनेवाले स्थानकी प्राप्ति होवे ॥ 10000000०००००००००००००००००००००००००००००................ बा१४१॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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