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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पअनन्दिपश्चविंशतिका । विषयसंबंधी सुख है इसलिये आचार्य कहते हैं कि इनके नाश होनेपर विद्वानोंको न तो शोक करना चाहिये तथा मिलने पर हर्षभी नहीं मानना चाहिये। भावार्थ:-यह वात आवाल गोपाल प्रसिद्ध है कि जो पैदा हुवा है वह अवश्य ही नष्ट होगा फिर मनुष्य, लक्ष्मी आदिकी उत्पत्तिमें हर्ष मानते हैं तथा उसके नाश होने पर शोक मानते हैं ऐसा उनको नहीं मानना चाहिये तथा जिसप्रकार बने उसप्रकार अपनी आत्माकाही कल्याण करना चाहिये ॥ ४ ॥ दुःखे वा समुपस्थितेऽथ मरणे शोको न कार्यों वुधैः संबंधो यदि विग्रहेण यदयं सम्भूतिधात्र्येतयोः । तत्तस्मात्परिचिंतनीयमनिशं संसारदुःखप्रदो येनास्य प्रभवः पुरः पुनरपि प्रायो न सम्भाव्यते ॥५॥ अर्थः-देहके संबंधसे यद्यपि संसारमें दु:ख तथा शोक आकर उपस्थित होते हैं तो भी विद्वानों को किसी पदार्थके लिये दुःख तथा शोक नहीं करना चाहिये क्योंकि यहदेह दुःख तथा शोककी पैदा करनेवाली भूमि है इसलिये विद्वानोंको निरन्तर उसआत्मस्वरूपका चितवन करना चाहिये जिससे भविष्यतमें नानाप्रकारके संसार के दुःखोंको देनेवाली इसशरीरकी उत्पत्ति फिरसे न होवे ॥ ५ ॥ शार्दूलविक्रीड़ित ।। दुर्जितकर्मकारणवशादिष्टे प्रनष्टे नरे यः शोकं कुरुते यदत्र नितरामुन्मत्तलीलायितम् ।। यस्मात्तत्र कृते न सिध्यति किमप्येतत्परं जायते नश्यन्त्येव नरस्य मूढ़मनसो धर्मार्थकामादयः ॥६॥ अर्थः--जिसका निवारण नहीं होसक्ता, तथा पूर्वभवमें संचित, ऐसे कर्मरूपीकारणके वशसे जो मनुष्य अपने प्रिय स्त्री, पुत्र, मित्र, आदिके नष्ट होनेपर उन्मादीमनुष्यकी लीलाके समान इससंसारमें विना प्रयोजनका अत्यन्त शोक करता है उसमूर्खमनुष्यको उसप्रकारके व्यर्थ शोककरनेसे कुछ भी नहीं मिलता ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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