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पद्यनन्दिपश्चविंशतिका । अर्थः-अत्यंत दुर्लभ इसमनुष्यभवके प्राप्त होने पर मनुष्यको संसार समुद्रसे पार करनेके लिये पुलके समान श्रेष्ठ तपका मिलना उत्तम है परन्तु इसलोकमें अर्हन्त तथा गुरुके पूजन तथा दानके उपयोगमें न आने वाली तथा केवल कर्मवन्धकी ही कारण ऐसी विभूतिकी कोई आवश्यकता नहीं।
भावार्थ:-मिली हुई विभूतिका उपयोग यदि अर्हन्तदेवके पूजनमें तथा गुरुओंके दानमें होवे तो वह विभूति वंधकी कारण नहीं कही जाती परन्तु देव तथा गुरुओंके पूजनमें यदि उसविभूतिका उपयोग न होवे तो वह केवल वंधकी कारण होती है इसलिये विभूति को पाकर भव्यजीवोंको उसका उपयोग देव तथा गुरुओंकी पूजा और दान में ही करना चाहिये अन्यथा उसकी अपेक्षा उत्तम तपही मिलना श्रेष्ठ है ॥ २२ ॥
बसंततिलका । भिक्षावरा परिहताखिलपापकारिकार्यानुबंधविधुराश्रितचित्तवृत्तिः।
सत्पात्रदानरहिता विततोग्रदुःखदुर्लयदुर्गतिकरीनपुनर्विभूतिः ॥ २३ ॥ अर्थः-जिस भिक्षाके होते संते चित्तकी वृत्ति समस्तप्रकारके पापके पैदा करने वाले कार्योंके संबंधसे दुःखित नहीं होती ( अर्थात् पापके करने वाले कार्योंकी ओर झांकती भी नहीं ) ऐसी भिक्षा तो उत्तम है किन्त विस्तीर्ण मानाप्रकारके दुःखोंसे नहीं पार करने योग्य ऐसी दुर्गति की देनेवाली तथा उत्तम आदि पात्रोंके दानके उपयोगकर रहित विभूतिकी कोई आवश्यकता नहीं ।
भावार्थ:-यदि मिली हुई विभूतिका उपयोग उत्तमादिपात्रोंके दानके लिये होवे तो वह विभूति दुर्गतिकी देनेवाली नहीं कही जाती किन्तु यदि विपरीतमें उसका उपयोग खोटे काामें किया जावे तो वह अवश्य दुर्गतिकी ही देनेवाली होती है तथा सत्पात्र दान रहित तथा दुर्गतिकी देनेवाली उस विभूतिकी
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