SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । भावार्थः-समस्तसुख तथा समस्तगुणों का कारण एक रक्षा कियाहुवा धर्म ही है इसलिये जो पुरुष सुखके आभिलाषी हैं तथा गुणी बनना चाहते हैं उनको सबसे पहले धर्मकी रक्षा करनी चाहिये ॥१८२॥ और भी आचार्य उपदेश देते हैं। नानायोनिजलौघलडितदिशि क्लेशोर्मिजालाकुले प्रोदभूतादभुतभूरिकर्ममकरग्रासीकृतप्राणिनि । दुष्पर्यन्तगभीरभीषणतरे जन्माम्बुधौ मजतां नो धर्मादपरोऽस्ति तारक इहाश्रान्तं यतध्वं वुधाः॥१८३॥ अर्थः-अनेकप्रकारकी जो नरकादि योनि वे ही हुवाजल उससे जिसने समस्तदिशाऑको व्याप्त कर लिया है तथा ननाप्रकारके दुःखरूपी तरंगें जिसमें मौजूद हैं और उत्पन्नहुवे जो नानाप्रकारके शुभाशुभकर्म वेही हवे मगर उनके द्वारा जिसमें जीव खाये जारहे हैं और न जिसका अंत है तथा जो गंभीर तथा भयंकर है ऐसे संसाररूपीसमुद्र में डूबतेहुवे जीवोंको पारकरनेवाला एक धर्म ही है इसलिये विद्वानोंको चाहिये कि वे सदा धर्मके करने में ही प्रयत्न करै ॥१८३॥ भावार्थ:-जिसप्रकार जिससमुद्रका जल चारो दिशामें फैलाहुवा है और जिससे बड़ी २ लहरें उठ रही है तथा भयंकर नाके जिसमें दीन प्राणियोंको खारहे है और जिसका अंत नहीं है तथा गंभीर और भयंकर है ऐसे समुद्र के बीचमें पड़ाहुवा मनुष्य बिना किसी जहाज आदिके नहीं तर सक्ता । उस ही प्रकार इस संसाररूपी समुद्र में डूबेहुवे प्राणी भी बिना धर्मके सहारे किसीप्रकार नहीं तर सक्ते क्योंकि यह संसाररूपीसमुद्र भी नानाप्रकारकी योनि रूपीजलसे समस्त दिशाओं को व्याप्त करनेवाला है तथा इसमें भी नानाप्रकारके दुःख रूपी तरंगे मौजूद हैं और कर्मरूपी मगरोंसे सदा इसमें भी जीव खाये जाते हैं तथा इस संसाररूपी समुद्र का अंत भी नहीं है तथा गंभीर और भयंकर भी है इसलिये विद्वानोंको सदा धर्ममें ही यत्न करना चाहिये । 6000०००००००००००००००००००00000000000000000000000000000000 ११ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy