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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra H१०० ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका । चक्रवर्ती आदि राजाओंके पद रूपी सरोवर में क्रीड़ा करते हैं " अर्थात् चक्रवर्ती आदि पदका भोग करते हैं " पीछे उसमे विमुख होकर धर्मके वलसे ही वे भव्य रूपी हंस मोक्ष पदरूपी मानस सरोवरको प्राप्त हो जाते हैं इसलिये भव्योंको चाहिये कि वे ऐसे माहात्म्य सहित धर्मका सदा आराधन करै ॥ १७८ ॥ और भी धर्मके माहात्म्यको दिखाते हैं । शार्दूलविक्रीडित । जायन्ते जिनचक्रवर्तिवलभृद्भागीन्द्रकृष्णादयो धर्मादेव दिगङ्गनाङ्गविलसच्छश्वद्यशचन्दनाः। तद्धीना नरकादियोनिषु नरा दुःखं सहन्ते ध्रुवं पापेनेति विजानता किमिति नो धर्मः सता सेव्यते ॥ १७९ ॥ अर्थः-- जो मनुष्य धर्मात्मा हैं वे मनुष्य धर्मके वलसे ही तीर्थंकर चक्रवर्ती वलभद्र धरणेन्द्र नारायण प्रति नारायण आदि पदके धारी होजाते हैं तथा उनकी कीर्ति समस्त दिशाओं में एक कोनेसे लेकर दूसरे कोने तक फैल जाती हैं और जो धर्मसे रहित हैं वे तो निश्चय कर नरकादि योनियोंमें नाना प्रकारके दुःखों को ही सहते हैं एसा जानते हुये भी आचार्य कहते हैं कि विद्वान् मनुष्य धर्मकी क्यों नहीं आराधना करते अर्थात् उनको अवश्य धर्मकी आराधना करनी चाहिये ॥ १७९ ॥ धर्मकी ही महिमा और दिखाते हैं । स स्वर्गः सुखरामणीयकपदं ते ते प्रदेशाः पराः सारा सा च विमानराजिरतुलखत्पताकापटाः । ते देवाश्च पदातयः परिलसत्तनंदनं तास्त्रियः शक्रत्वं तदनिंद्यमेतदखिलं धर्मस्य विस्फूर्जितम् ॥ १८०॥ अर्थः- सुख तथा सुंदरताका अद्वितीय स्थान तो वह स्वर्ग तथा वे वे महामनोहर स्वर्गौके प्रदेश तथा जिनके ऊपर अनुपम पताका उड़ रही है ऐसे वे विमानों की पंक्ति और प्यादे स्वरूप वे देवता तथा वह मनो For Private And Personal ॥१००॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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