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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १९६॥ www.kobairthorg Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandie 200094490-944 पअनन्दिपञ्चविंशतिका । अस्मत्केशग्रहणमकरोदनतस्ते जरेयं मर्षस्येतन्मम च हतके स्नेहलाद्यापि चित्रम् ॥ १७२ ॥ अर्थः-४ तृष्णे ! आजन्मसे तू हमारी प्रिया है और तू मदा हमार पास रहनेवाली है तथा तू प्रौढ़ा है और अधिक कहांतक कहा जाय तू साक्षात् हमारी स्त्रीही है परंतु अरे दुष्टे तेरे समान भी इसजराने हमारे केश पकड़ लिये हैं तो भी तू सहन करती है फिरभी तो हमारी प्यारी है यह बडे आवर्य की बात है। भावार्थ:--स्त्रीका यह स्वभाव होता है कि यदि वह अपने पतिके साथ किसी दूसरी स्त्रीको क्रीड़ा करती तथा रमणकरती देखलेवे तो उससे बड़ीभारी ईर्षा करती है तथा तत्काल ही उसका पतिके साथ संबंध छुड़ाने की चेष्टा करती है यदि संबंध न छूटसकै तो प्रीति तो अवश्य ही छुड़ादेती है अतएव अज्ञानी पुरुष इसप्रकार तृष्णाको संबोधते हैं कि अयिप्रिये तृष्णे! इस जराने हमारे केश पकड़ लिये है तो भी तु कुछ नहीं कहती है अर्थात तुझे इसका हमारे साथ संबंध छुटा देना चाहिये ।। १७२ ।। और भी आचार्य उपदेश देते हैं। वसंततिलका। रङ्कायते परिवृद्धोऽपि दृढ़ोऽपि मृत्युमभ्येति दैववशतः क्षणतोत्र लोके । तत्कः करोति मदमम्बुजपत्रवारिविन्दूपमैर्धनकलेवरजीवितायैः ॥१७३ ।। अर्थः--जो मनुष्य इस संसारमें धनी हैं वह क्षणभरमें रंक होजाता है और जो रंक हैं वह पलभरमें धनी होजाता है तथा जो वलवान् दीखता है वह दैवयोगसे मृत्युको प्राप्त होजाता है इसलिये ऐसा कौन बुद्धिमान है जो "धन शरीर जीवन आदिको" कमलके पत्तपर जलकी बूंदके समान विनाशीक जानकर भी मदकरै अर्थात कोई भी मद नहीं करसक्ता ।। १७३ ॥ ܘ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀ܪ ܀ 000000000000000000000000000000000000 ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥९६॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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