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पमनन्दिपञ्चविंशतिका । प्राप्ति के लिये भी धर्मरूपी रसायनका आश्रय करना चाहते हो तो मिथ्यात्व अविरति प्रमाद तथा कोधादि कषायों का सर्वथा त्याग करो ॥
भावार्थ:--जबतक क्रोधादि कषायोंका आत्माके साथ संबंध रहेगा तबतक न तुम नाना दुःखों के देनेवाले संसाररूपी महारोगका शमन करसक्ते हो और न तुम अविनाशी सुखकी ही तरफ झांक सक्ते हो इसलिये यदि तुम संसार रूपी महारोगके दूर करने की अभिलाषा करतेहो तथा यदि तुम अविनाशी सुखको चाहते हो तो मिथ्यात्व आदिकी तरफ झांक झांक करके भी न देखा ॥ १६५ ॥
अब आचार्य धर्मका दुर्लभपना दिखाते हैं। नष्टं रत्नमिवाम्बुधौ निधिरिव प्रभ्रष्टदृष्टेर्यथा योगो यूपशलाकयोश्च गतयोः पूर्वापरौ तोयधी। संसारेऽत्र तथा नरत्वमसकृदुखप्रदे दुर्लभं लब्धे तत्र च जन्म निर्मलकुले तत्रापि धर्मे मातिः॥१६६॥
अर्थः-जिसप्रकार अथाह समुद्र में यदि रत्न गिरपड़े फिर उसका मिलना बहुत कठिन है तथा जैसे अंधेको निधि मिलना अत्यंत दुर्लभ है और जिसप्रकार समुद्र में किसी स्थानपर दो काष्ट खण्डोंको छोड़देना उनमें एकको पूर्व दिशाकी ओर वहादेना तथा दूसरेको पश्चिम दिशाकी ओरको वहादेना फिर उनका उसही स्थान पर मिलना दुःसाध्य है उसही प्रकार निरंतर नाना प्रकारके दुःखोंके देनेवाले इस संसारमें मनुष्य जन्मका पाना बहुत कठिन है यदि दैवयोगसे मनुष्य जन्मभी मिलजावे तो फिर उत्तम कुल मिलना अत्यन्त दुर्लभ है यदि किसी समय में उत्तम कुलकी भी प्राप्ति होजावे तो फिर धर्ममें श्रद्धा होना अत्यंत दुःसाध्य है इसलिये भव्यजीवोंको एसे अत्यन्त दुर्लभ धर्मकी अवश्य उपसना करनी चाहिये ।। १६६ ।। अवआचार्य इसवातको दिखाते हैं कि अत्यंत दुर्लभ धर्भ आदिक वस्तु खोटे उपदेशसे प्राणियोंके व्यर्थ चलीजातीहै।
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