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अनन्तनाथ
भी जन्मभूमि रही है। इसके अतिरिक्त बीस तीर्थंकारों- अजितनाथ (द्वितीय), सम्भवनाथ (तृतीय), अभिनन्दन (चतुर्थ), सुमतिनाथ (पंचम), पदमप्रभु (षष्ट), सुपार्श्वनाथ (सप्तम), सुविधिनाथ (नवम्), शीतलनाथ ( दशम् ), श्रेयांसनाथ (एकादश), विमलनाथ (तेरहवें), (चौदहवें), धर्मनाथ (पन्द्रहवें), शांतिनाथ (सोलहवें), कुंतीनाथ (सत्रहवें), अरनाथ (अट्ठारहवें), मल्लिनाथ (उन्नीसवें), मुनिसुव्रत ( बीसवें), नेमिनाथ ( इक्कीसवें) और पार्श्वनाथ ( तैबीसवें ) तीर्थंकारों की निर्वाणभूमि रही है। भगवान ऋषभ ने प्रस्तर युग की समाप्ति और कृषियुग के प्रारम्भ के पहले मगध में उपदेश दिया था। यहीं अशोक के पौत्र सम्प्राति ने जैनमत का प्रचार भारत में ही नहीं, सुदूर अफगानिस्तान में भी किया ।' मानवीय अर्थवत्ता के कारण जैनमत दूर दूर तक फैला। बिहार के राजाओं में श्रेणिक (बिम्बसार), कुणीक (अजातशत्रु) चेटक, जीतशत्रु, नंदिवर्द्धन, चन्द्रगुप्त, सम्प्राति और सलीयुक जैनमत के अनुयायी थे । 2 बिहार में अनेक जैन मूर्तियां है, किन्तु अनेकों को बौद्धमत की मान लिया गया है, फिर भी जैन पुरानवेशेषों की दृष्टि से बिहार सम्पन्न है । हजारीबाग जिले में पार्श्वनाथ पहाड़ी पवित्र स्थान माना जाता है। पटना के अजायबघर में ग्यारहवीं शताब्दी की जैन मूर्तियां उपलब्ध है। बिहार में राजगृह, नालंदा, पावापुरी, और पाटलीपुत्र में जैन पुरावशेष उपलब्ध है। म्रावक पहाड़ी में एक गुफा में पार्श्वनाथ की सुन्दर मूर्ति है। शहबाद में छठी शताब्दी से नवीं शताब्दी तक की जैनमूर्तियां उपलब्ध हैं। मारवाड़ के राठौड़ जैन यहां बस गए थे, उनके द्वारा स्थापित चौदहवीं शताब्दी की एक मूर्ति में 1386 ई अंकित है। आरा और उसके निकट डालमिया नगर में एक जैन मंदिर है। करणगढ़ में करण के राजकुमार ने जैनमत स्वीकार किया था और इसका प्रचार किया। पाटलीपुत्र जैन साहित्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण है । यहीं जैन विद्वान भद्रबाहु और स्थूलिभद्र हुए और यहीं प्रथम जैनसभा हुई । पावापुरी जैनियों का प्रसिद्ध तीर्थ है। राजगृह में भगवान महावीर ने अनेक बार उपदेश दिये। यहां चीनी ह्वेनसांग ने सातवीं शताब्दी में निर्ग्रथ मुनियों को देखा । ' उदयगिरी की पहाड़ियों की एक गुफा में पार्श्वनाथ की मूर्ति है। राजगृह में 212 फीट लम्बी पार्श्वनाथ की मूर्ति है, जिनके सिर पर सप्तमुखी सर्व छत्र बनाए हुए हैं। राजगृह में ही तीन जैन मूर्तियों- गौतम स्वामी, सुधर्मस्वामी और स्वामी निर्वाण प्राप्त किया था। इन तीन गणधरों की जन्मभूमि भी बिहार ही है। इस प्रकार
1. Jain Journal, April 69, Page 147
2. वही, पृ 147
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3. वही, पृ 157.
4. वही, पृ 158.
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The grandson of Ashoke Samprati was converted to the creed and spread the gospel of Jainism, not only in different parts of India, but even in the distant land of Afganistan.
Among the kings of Bihar who followed Jainism, mention may be made of Srenik (Bimbsar) Kunika (Ajat Satru) Cetake, Jit Satru, Nandivardhan, Chandragupta, Samprati, Salisuka.
Some Rathor Jains of Marwar had settled at Mesarh in the 14th century A.D. and an inscribed Jain image bearing the date 1386 could be seen at Masarh.
The Chinese traveller Hieun Tsang visited India in the 7th century A. D. noticed Nirgrantha on the Vaibhara hill.
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