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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 31 श्वेताम्बर जैन अगमों में आठ प्रकार के ब्राह्मण परिव्राजक और आठ प्रकार के क्षत्रिय परिव्राजक बतलाए गए हैं। महावीर और बुद्ध दोनों के अनुयायी साधु श्रमण कहे जाते थे और महावीर तथा बुद्ध दोनों प्रव्रज्या ग्रहण करने के पश्चात् महाश्रमण कहलाये। ये दोनों क्षत्रिय थे। दोनों वेद और ब्राह्मण परम्परा के विरोधी थे । वैदिक संस्कृति में जो तत्व पीछे से प्रविष्ट हुए- आत्मविद्या, पुनर्जन्म, तप, मुक्ति, उन सबको दोनों मानते थे। 'वृहदारण्यक उपनिषद' और 'तैत्तिरिय आरण्यक' के समय में श्रमण वर्तमान थे। डा. भण्डारकर का कथन है कि प्राचीनकाल से ही भारतीय समाज में ऐसे व्यक्ति मौजूद थे, जो श्रमण कहे जाते थे। वे ध्यान में मग्न रहते थे और कभी कभी मुक्ति का उपदेश देते थे, जो प्रचलित धर्म के अनुरूप नहीं होता था। श्रमणों की परम्परा को हम योगियों की परम्परा कह सकते हैं। __मथुरा म्युजियम में दूसरी शती की, कायोत्सर्ग स्थित एक वृषभदेव की मूर्ति है। इस मूर्ति की शैली सिन्धु से प्राप्त मोहरों पर अंकित खड़ी हुई देवमूर्तियों के बिल्कुल मिलती है। राधामुकुद मुखर्जी ने भी चंदा के निष्कर्ष को स्वीकार कर कहा है “उन्होंने (चंदाने) 6 अन्य मुहरों पर खड़ी हुई मूर्तियों की ओर ध्यान दिलाया है। यह मुद्रा जैन योगियों की तपश्चर्या में विशेष रूप से मिलती है, जैसे मथुरा संग्रहालय में स्थापित तीर्थंकर ऋषभ देवता की मूर्ति में। इसमें सिन्धु सभ्यता एवं ऐतिहासिक भारतीय सभ्यता के बीच की खोई हुई कड़ी का भी एक उभय सांस्कृतिक परम्परा के रूप में उद्धार हो जाता है।" मोहनजोदड़ो के निवासियों में लिंग सहित शिव को पूजने की प्रथा थी। भारत सरकार के पुरातत्व विभाग के संयुक्त निदेशक श्री टी.एन. रामचंद्रन ने माना है “हड़प्पा की मूर्ति के उपरोक्त गुण विशिष्ट मुद्रा में होने के कारण यदि हम उसे जैन तीर्थंकर अथवा ख्याति प्राप्त तपो महिमा युक्त जैन सन्त की प्रतिमा कहें, तो कुछ भी असत्य न होगा।"5 इस प्रकार मोहनजोदड़ो से प्राप्त नग्न मूर्ति को श्री रामचन्द्र चंदा ने सम्भावना रूप में ऋषभदेव की मूर्ति बतलाया है और इधर हड़प्पा से प्राप्त कबन्ध को श्री रामचन्द्रन ने ऋषभदेव की मूर्ति बतलाया है। इस कारण डॉराधाकुमुद मुखर्जी ने माना कि शैवधर्म की तरह जैन धर्म का मूल भी ताम्रयुगीन सिन्धु सभ्यता तक चला जाता है। व्रात्य परम्परा श्रमण परम्परा को व्रात्यों से जोड़ा जा सकता है। वैदिक वाङ्गमय की एक कठिन 1. Collected works of Dr. R.G. Bhandarkar, Part I, Page 10 2. Modern Review, June 1932 3. डा. राधाकुमुद मुखर्जी, हिन्दू सभ्यता, पृ23-24 4. Indian Litereature, April, 1936, Page 767 5.पं. कैलाशचंद्र शास्त्री. जैन साहित्य का इतिहास, 105-106 6. वही, पृ107 For Private and Personal Use Only
SR No.020517
Book TitleOsvansh Udbhav Aur Vikas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavirmal Lodha
PublisherLodha Bandhu Prakashan
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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