SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 444
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 415 से युद्ध करो। अपने से अपने को ही जीतकर ही सच्चा सुख प्राप्त होता है, स्वयं पर ही विजय प्राप्त करनी चाहिये । अपने पर विजय प्राप्त करना ही कठिन है। आत्म विजेता ही इस लोक और परलोक में सुखी होता है और उचित यही है कि मैं स्वयं ही संयम और तप के द्वारा अपने पर ही विजय प्राप्त करूँ । बन्धन और वध के द्वारा दूसरों से मैं दमित और प्रताड़ित किया जाऊँ, यह उचित नहीं है। इन युद्धवीरों का जीवन क्रोध और प्रतिशोध का प्रतीक था। महावीर के ही शब्दों में इन्होंने अनवरत उपदेश दिया, क्रोध प्रीति को नष्ट करता है, मान विजय को नष्ट करता है, माया मैत्री को नष्ट करती है, लोभ सब कुछ नष्ट करता है, क्षमा से क्रोध का हनन करे, नम्रता से मान को जीते, १जुता से माया को और संतोष से लोभ को जीतें। __ जैनाचार्यों ने उपदेश दिया कि किसी प्राणी की हिंसा न करें, न कर्म से, मन से, न वचन से। सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं। प्राणीवध पाप है। जीव का वध क्यों करते हो, जीव का वध अपना वध है। इन जैनाचार्यों ने उपदेश दिया कि तुम युद्ध और हिंसा के लिये जागते हो, किन्तु अब परमात्मा को प्राप्त करने के लिये जागो, सतत जागृत रहो, जो जागता है, उसकी बुद्धि बढ़ती है, सोता है वह धन्य नहीं है, धन्य वह है जो जागता है। जैनाचार्यों ने सोई हुए क्षत्रियों और राजपूतों को जगाया और सुरापान की जगह आत्मवाद का अमृत पिलाया। जैनाचार्यों के मंत्रों से सोई हुई जाति अंगड़ाई लेकर जाग गई। जैनाचार्यों ने शिक्षादी, अभिमान छोड़ो, क्रोध छोड़ो, प्रमाद छोड़ो, रोग और आलस्य छोड़ो और मुक्ति के पथ पर प्रशस्त हो जाओ; तुम सम्यगदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चरित्र्य अपनाओ। चक्रवर्ती सम्राटों की विपुल राजलक्ष्मी सम्यक्त्व के समक्ष तुच्छ है। इन जैनाचार्यों ने कहा कि तुम युद्धवीर हो, किन्तु भयभीत हो, क्योंकि तुम शत्रु से डरते हो। तुम सातों भय- इस लोक का भय, परलोक का भय, अरक्षा का भय, अगुप्ति का भय, मृत्यु का भय, वेदना भय और अकस्मात् भय छोड़कर अभय के प्रतिमान बनो। इन जैनाचार्यों ने क्षत्रियों और राजपुत्रों से कहा कि तुम सदैव दर्गरक्षा में प्रवृत्त रहते हो। महावीर के शब्दों में ही कहा, “श्रद्धा को नगर, तप और संवर को अर्गला, क्षमा को (बुर्ज, खाई और शतध्नीस्वरूप) त्रिगुप्ति (मन वचन काय) से सुरक्षित तथा अजेय सुदृढ़ प्रकार बनाकर बाणों से युक्त धनुष से कर्म कवच को भेदकर आंतरिक संग्राम के विजेता बनो, जैसे जैनश्रमण। जैनाचार्यों ने उस क्षत्रिय और राजपूत जाति का कायाकल्प कर दिया जो वीरता के माध्यम से अर्थ और काम से जुड़ी थी, उसे महावीर से जोड़कर धर्म और मोक्ष की ओर उन्मुख कर दिया। 1. समणसुतं, पृ41 2. समणसुतं, पृ44 3. समणसुतं, पृ93 For Private and Personal Use Only
SR No.020517
Book TitleOsvansh Udbhav Aur Vikas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavirmal Lodha
PublisherLodha Bandhu Prakashan
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy