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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 406 __इस प्रकार भगवान महावीर ने जैनमत की भित्ति को अहिंसारूपी सुदृढ़ स्तम्भ पर स्थापित किया। अन्य महाव्रत अणुव्रत भी अहिंसा रूपी व्रत से ही उद्भूत है। अहिंसा रूपी स्तम्भ के ढहने से जीवन रूपीभवन किसी भी क्षण ढह सकता है। अहिंसा जीवन और मोक्ष दोनों का मूलमंत्र है। अहिंसा के द्वारा ही व्यक्ति का रूपान्तरण कर महावीर ने एक नयी संस्कृति की रचना की। सत्य जैनमत का द्वितीय स्तम्भ है । भगवान महावीर की मान्यता है कि जो जीव मिथ्यात्व से ग्रस्त होता है, उसकी दृष्टि विपरीत हो जाती है। उसे धर्म भी रुचिकर नहीं लगता, जैसे ज्वरग्रस्त मनुष्य को मीठा रस भी अच्छा नहीं लगता'; मिथ्यात्व जीव तीव्र कषाय से पूरी तरह आविष्ट होकर जीव और शरीर को एक मानता है, वह बहिरात्मा है; जो तत्वविचार के अनुसार नहीं चलता, उससे बड़ा मिथ्यादृष्टि और दूसरा कौन हो सकता है ? वह दूसरों को शंकाशील बनाकर अपने मिथ्यात्व को बढ़ाता रहता है। हे मनुष्य ! सत्य का ही निर्णय कर, जो सत्य की आज्ञा में उपस्थित है, वह मेघावी मृत्यु को जीत सकता है, सुन्दर चित्रवाला (संयमी) व्यक्ति धर्म (अध्यात्म) को ग्रहण कर श्रेष्ठता को देखता रहता है, वह व्याकुलता में नहीं फँसता'; जो अनुपम (आत्मा) को जानता है वह सब (विषमताओं) को जानता है, जो सब को जानता है, वह अनुपम आत्मा को जानता है; जो व्यक्ति क्रोध को समझने वाला है, वह अहंकार को समझने वाला है, जो अहंकार को समझने वाला है, वह मायाचार को समझने वाला है, जो मायाचार को समझने वाला है, वह लोभ को समझने वाला है, जो लोभ को समझने वाला है, वह राग को समझने वाला है, जो राग और द्वेष को समझने वाला है, वह आसक्ति को समझने वाला है, जो आसक्ति को समझने वाला है, वह विभिन्न प्रकार के दुखों को समझने वाला है। 1. समणसुतं, पृ23 2.वही, पृ24-25 मिच्छत्तपरिणदप्पा तिव्वकसाएण सुडु आविट्ठो। जीवं देहं एकं, मण्णंतो होदि बहिरण्णा ।। 3. वही, पृ24-25 जो जहवायं न कुणई, मिच्छादिट्ठी तओ हु को अन्ना। वड्ढइ य मिच्छतं, परस्स संकं जणे माणो ।। 4.आचरांग चयनिका, पृ44-45 पुरिसा । सच्चमेव सममिजाणाहि। सच्चस्स आणाए से उवट्ठिए मेधावी मारं तरति । सहिते धम्मादाय सेयं समणुपस्सति । सहिते दुक्खमताए पुट्ठो णो झंझाए । 5. वही, पृ44-45 6. वही, पृ46-49 जे कोहदंसी से माणदंसि, जे माणदंसी से मायदंसी, जे मायदंसी से लोभदंसी, जे लोभदंसी से पेजदंसी, जे पेज्जदंसी से दोसदंसी, जे दोसदंसी से मोहदंसी, जे मोहरजी ......... से दुक्खदंसी । For Private and Personal Use Only
SR No.020517
Book TitleOsvansh Udbhav Aur Vikas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavirmal Lodha
PublisherLodha Bandhu Prakashan
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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