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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 402 निर्विचिकित्सा (जुगुप्सा का अभाव- अपने दोष और दूसरों के गुणों को छुपाना) 4. अमूढ दृष्टि- (1) देवमूढता (2) गुरुमूढता 5. उपगूहन (अपने गुणों और दूसरे के दोषों को प्रकट न करना- जुगुप्सा के विपरीत) 6. स्थिरीकरण 7. वात्सल्य 8. प्रभावना (इस भांति जिओ कि धर्म की प्रभावना हो)।' इस प्रकार सम्यग्दर्शन जैन आचार संहिता का एक व्यावहारिक मूल्य है, . जिसकी नींव पर श्रमण संस्कृति का भव्य भवन निर्मित है। सम्यग्ज्ञान मोक्ष मार्ग की द्वितीयसीढी है। महावीर ने कहा, 'साधक सुनकर ही कल्याण या आत्माहित का मार्ग जान सकता है, सुनकर ही पाप या अहित का मार्ग जाना जा सकता है, जैसे धागा पिरोई हुई सुई गिर जाने पर भी खोती नहीं है, वैसे ही ससूत्र अर्थात् शास्त्रज्ञान युक्त जीव संसार में नष्ट नहीं होता, जिस व्यक्ति में परमाणु भर भी रागादि भाव विद्यमान है, वह समस्त आगम का ज्ञाता होते हुए भी आत्मा को नहीं जानता, आत्मा को नहीं जानने से अनात्मा को नहीं जानता, तब वह जीव-अजीव को नहीं जानता, तब वह सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है। जिससे तत्व का ज्ञान होता है, चित्त का निरोध होता है, तथा आत्मा विशुद्ध होती है, उसी को जिनशासन का ज्ञान कहा गया है, जिससे जीव रागाविमुख होता है, श्रेय में अनुरक्त होता है, जिससे मेत्री भाव प्रभावित होता है, उसी को जिनशासन में ज्ञान कहा गया है; जो आत्मा को इस अपवित्र शरीर से तत्वत: भिन्न तथाज्ञायक भावरूप जानता है, वही समस्त शास्त्रों को जानता है;' जो जीव आत्मा को शुद्ध जानता है वही शुद्ध आत्मा को प्राप्त करता है और जो आत्मा को अशुद्ध अर्थात् 1. जिनवाणी, अगस्त 96, सम्यग्दर्शन विशेषांक, पृ401-409 2. समणसुतं, पृ 80-81 सोच्चा जाणई कल्लाणं, सोच्चा जाणई पावगं । उमय वि जाणए सोचा, जं छेयं तं समायरे । 3. वही, पृ80-81 सुई जहा सुसत्ता, न नस्सई, कयवरम्मि पडिआ वि। जीवो वि तह सुसत्तो, न नस्सइ गओ वि संसारो॥ 4. वही, पृ82-83 परमाणुमित्तअं वि हु, रायादीणं तु विज्जदे जस्स । ण वि सो जाणदि अप्पाणयं तु सव्वागमधरो ।। अप्पाणमयाणंतो, अणप्पयं चावि सो अयाणंतो। कह होदि सम्मदिट्ठी, जीवाजीवे अयाणंतो ।। 5. समणसुत्तं, पृ82-83 जेण तच्चं बिबुज्झेज, जेण चित्तं णिरुज्झदि । जेण अत्ता विसुज्झेज, तं णाणं जिणसासणे ।। 6. वही, पृ82-83 जेण रागा विरज्जेज, जेण सेएसु रजदि । जेण मिती परमावेज, तं णाणं जिणसासणे ।। 7. वही, पृ82-83 जो अप्पाणं जाणदि, असुइ-सरीरादु तच्चदो भिन्नं । जाणग-रूव-सरूवं, सो सत्थं जाणदे सव्वं ।। For Private and Personal Use Only
SR No.020517
Book TitleOsvansh Udbhav Aur Vikas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavirmal Lodha
PublisherLodha Bandhu Prakashan
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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