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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 399 से बहिरात्मा को छोड़कर, अन्तरात्मा में आरोहण कर परमात्मा का ध्यान करो;' शुद्ध आत्मा में वर्ण रस, स्पर्श तथा स्त्री, पुरुष, नपुंसक आदि पर्याय, संस्थान और संहनन नहीं होते; शुद्ध आत्मा वास्तव में अरस, अरूप, अंगध, अव्यक्त, चैतन्य गुण वाला, अशब्द, आलिंगग्राह्य और संस्थान रहित है; आत्मा मन, वचन, कर्म मे रहित, निर्द्वन्द्व (अकेला), निमर्म (ममत्वरहित), निष्फल (शरीर रहित), निरावलम्ब (परद्रव्यालम्बन से रहित), वीतराग, निर्दोष, मोहरहित और निर्मम है; आत्मा निग्रंथ है, नीराग है, निशल्य (मायारहित) है, सर्वदोषों से निर्मुक्त है, निष्काम है और नि:क्रोध, निर्मान और निर्मद है; आत्मा न शरीर है, न मन है, न वाणी है, न कारण है, न कर्ता है, न करने वाला है और न कर्ता का अनुमोदक है।' ___ आत्मा की यात्रा बहिरात्मा से अंतरात्मा की ओर होते हुए परमात्मा तक पहुँचने के लिये मोक्ष तक पहुँचने की यात्रा है। भारतीय जीवन दृष्टि के अनुसार चारों पुरुषार्थों में यह धर्म से मोक्ष तक की यात्रा है- अर्थ और काम की स्थिति बीच में है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र्य मोक्ष के मार्ग हैं । यही जैन दर्शन का आचार शास्त्र है। (सम्यग) दर्शन, ज्ञान, चारित्र्य तथा तप को जिनेन्द्रदेव ने मोक्ष का मार्ग कहा है। यह निश्चय और व्यवहार दो प्रकार का है। शुभ और अशुभ भाव मोक्षमार्ग नहीं है।' शुभभाव से विद्याधरों, देवों और मनुष्यों की करांजलिबद्द स्तुतियों से चक्रवर्ती सम्राट की विपुल राजलक्ष्मी उपलब्ध हो सकती है, किन्तु सम्यगसम्बोधि प्राप्त नहीं होती। 1. वही, पृ.58-59 आरुहंति अंतरप्पा, बहिरप्पो छंडिऊण तिविहेण । झाइज्जइ परमप्पा, उवइट्ठं जिणिवरिंदेहिं ।। 2. वही, 58-59 वण्ण रसगंध फासा, थी पुंसणqसुयादि- पज्जाया। संठाणा संहणणा, सवे जीवस्स णो संति ।। 3. वही, पृ58-59 अर समरुवमगंध, अव्वत्तं चेदणागुणमसदं । जाण अलिंगग्गहणं, जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ॥ 4. वही, पृ58-59 णिइंडो णिबंदो, णिम्ममो णिक्कालो णिरालंबो । णिरागो णिद्दोणी, जिम्मूढो णिब्भयो अप्पा ।। 5. समणसुत्तं, पृ 58-59 णिगंथो णिसोरागो, णिस्सल्लो सयलदोसणिम्मुक्को । णिक्कामो णिक्कोहो, णिम्माणो, णिम्मदो अप्पा ।। 6. वही, पृ60-61 णाहं देहो ण मयो, ण चेव वाणी ण कारणं तेसिं। कत्ता ण ण कारयिदा, अणुमंता णेव कत्तीणं ।। 7. वही, पृ64-65 दसणणाण चरित्ताणि, मोक्खमम्मो त्ति सेविदव्वाणि । साधूहि इदं भणिदं, तेहि दु बंधो व मोक्खो वा ॥ 8. सुमणसुतं, पृ 66-67 खयरामरमणुय- करंजलि- मालहिंचसंथुया विडला, चक्क हररायलच्छी, बोही ण भव्वणुओ ।। For Private and Personal Use Only
SR No.020517
Book TitleOsvansh Udbhav Aur Vikas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavirmal Lodha
PublisherLodha Bandhu Prakashan
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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