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397 दुख ही है। वह तो क्षणिक है, किन्तु उसका परिणाम दारुण होता है, अत: उससे दूर रहना ही उचित है।' खुजली का रोगी जैसे खुजलाने पर दुख को सुख मानता है, वैसे ही मोहातुर मनुष्य कामजन्य सुख को दुख मानता है। आत्मा को दूषित करने वाले भोगामिष (आसक्तिजनक भोग) में निमग्न हित और उसी तरह कर्मों में बंध जाता है, जैसे श्लेष्म में मक्खी'; जीव, जन्म, जरा और मरण में होने वाले दुख को विरक्त नहीं हो पाता। अहो! माया (दम्भ) की गांठ कितनी सुदृढ़ होती है। संसारी जीव के रागद्वेष परिणाम होते हैं, परिणामों से कर्मबंध होता है, कर्मबंध के जन्म से शरीर और शरीर से इन्द्रियां प्राप्त होती हैं, इंद्रियां विषयों का सेवन करती है, फिर रागद्वेष पैदा होता है, इस प्रकार जीव संसार वन में परिभ्रमण करता है। इस तरह इस संसार में जन्म दुख है, बुढ़ापा दुख है, रोग दुख है और मृत्यु दुख है। अहो संसार दुख ही है, जिसमें जीव क्लेष पारहे
महावीर ने कर्मवाद का उपदेश दिया है। महावीर ने स्पष्ट कहा, कर्मकर्ताकाअनुगमन करता है, जाति, मित्र, पुत्र और बांधव उसका दुख नहीं बांट सकते'; जीव कर्मों का बन्ध करने में स्वतंत्र होता है, परन्तु कर्म का उदय होने पर भोगने में उसके अधीन होना है, जैसे कोई पुरुष
1.समणसुत-16-17
नर बिबु हेसरसुक्खं, दुक्खं, परमत्थओ तयं बिति ।
परिणामदारुण मसाथं च जं ता अलं तेण ।। 2. वही, पृ16-17
नह कच्युल्लो कच्छं, कंडयमाणो दुहं मुण्य सुक्खं ।
मोहाउरा मणुस्सा, तह काम दुहं सुहं बिति ।। 3. वही, पृ16-17
भोगामिस दोस विसोये, हियनिस्सेयस बुद्धिवोत्थे ।
बाले य मन्दिय मूढे, बन्झई मच्छिया व खेलम्मि ।। 4. वही, पृ18-19
जाणिज्जइ चिन्तिज्जइ. जम्मजरामरणसभवं दक्ख।
नय विसएसु विरजई, अहो सुबद्धो कवड़ गंठी । 5. वही, पृ18-19
जो खलु संसारत्थो, जीवो तत्तो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्म, कम्मोदो होदि गदिसु गदी ।। गदिमधिगदस्स- देतो, देहादो इंदियाणिजायंते । तोहि दु विसयग्गहणं तत्तो रागो व दोसो वा । जायदि जीवस्सेवं, भावो संसारचक्कवालम्मि ।
इरि जिणारोंत भणिदो अणादिणीधणो सणिधणोवा ।। 6. वही, पृ18-19
जम्म दुक्खं, जरा दुक्खं, रागा य मरणाणि य ।
अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसन्ति जंत वो॥ 7. वही, पृ20-21
न तस्स दुक्खं विमयन्ति नाइओ, न मित्त वग्गा न सुआ न बंधवा ।
एक्को सयं पच्चनुहोइ दुक्खं, कत्तारमेव अणुजाइ कम्म ॥ 8. वही, पृ20-21
कम्मं चिणंति सक्सा, तस्सु दयम्मि उपरव्वसा होति। रुक्खं दुरुहइ सवसो, विगलइ स परव्वसो तत्तो॥ .
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