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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पुनरावृत्ति है | 2 नामों की पुनरावृत्ति हिन्दुओं के आदि गुरु शंकराचार्य की देखी जाती है। आज तक चारों मठाधीशों को शंकराचार्य कहा जाता है । 'श्वेताम्बर सम्प्रदाय के खरतरगच्छ में 16वें पट्टधर श्री जिनचंद्रसूरि इतने प्रभावशाली हुए कि उनके बाद हर चौथे पट्टधर का नाम इन्हीं के नाम पर जिनचंद्रसूरि रखा जाता है।" Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री पूर्णचंद नाहर ने माना 'सम्भव है विक्रम संवत् 500 के पश्चात् और 1000 के पूर्व किसी समय उपकेश जाति की उत्पत्ति हुई होगी और उसी समय उपकेशगच्छ नामकरण हुआ होगा | 2 253 इतिहास के स्रोत के शिलालेख और उस समय के लेख ही नहीं होते, किन्तु साहित्यिक भी होते हैं । 'शिलालेखों एवं ग्रंथों की प्राचीनता से तथ्यों की पुष्टि तो की जा सकती है, साहित्यिक साक्ष्यों से पुष्ट इतिहास को नकारना उचित नहीं ।' पर यदि साहित्यिक साक्ष्य स्वीकार न किये जायं तो वाल्मीकि रामायण के पात्र राम और महाभारत के कृष्ण की ऐतिहासिकता पर प्रश्नचिह्न खड़ा हो जाएगा। क्या यही प्रश्न चिह्न भगवान पार्श्व और भगवान महावीर की ऐतिहासिकता पर नहीं लगाया जा सकता है ? श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आचार्यों, श्रमणों और साधुओं का पार्श्वप्रेम प्रसिद्ध है। यह तो स्वतः सिद्ध है, 'खरतरगच्छ की उत्पत्ति से पूर्व पार्श्वनाथ परम्परा का उपकेशगच्छ एवं चैत्य मौजूद थे। ओसवंश के अनेक गोत्रों के निर्माण का श्रेय खरतरगच्छ को है। नये गोत्र निर्माण से ही मूल जाति की पूर्व उत्पत्ति सिद्ध हो जाती है। खरतरगच्छ के आचार्यों नये गोत्र बनाकर उन्हें ओसवंश में सम्मिलित किया। निस्संदेह यह जाति उस समय प्रभावशाली रही होगी। समस्त खरतरगच्छ आचार्य जाति की उत्पत्ति के सम्बन्ध में चुप है। उन्हीं की परम्परा 19वीं सदी के यतियों ने एक स्वर से अपने ग्रंथों में ओसवंश और उपकेशगच्छ को पार्श्वनाथ परम्परा के भी रत्नप्रभसूरि द्वारा वीरात् 70वें वर्ष में उत्पन्न स्वीकार किया है । '4 1. जैन लेख संग्रह, भाग 3, प्रस्तावना 2. इतिहास की अमरबेल ओसवाल, प्रथम खण्ड, पृ39 3. वही, पृ. 124 4. वही, पृ 124-125 “ओसवाल कुल के अनेक गोत्रों की स्थापना 11वीं से 16वीं शताब्दी के मध्य खरतरगच्छ के आचार्यों द्वारा हुई। इन छ शताब्दियों में इस जाति का बहुत विकास हुआ। खरतरगच्छ में अनेक प्रसिद्ध आचार्य हुए। उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की। परन्तु उल्लेखनीय यह है कि किसी खरतरगच्छ आचार्य ने ओसवाल वंश की उत्पत्ति का श्रेय ही नहीं लिया, न ही किसी ग्रंथ में किसी खरतर आचार्य द्वारा इस वंश की प्रस्थापना का जिक्र ही किया गया। यदि 1 1 वीं शताब्दी या उससे कुछ पहले इस वंश की उत्पत्ति हुई होती तो अवश्य ही उत्पत्ति सम्बन्धी कथानक इन ग्रंथों में आता, , जबकि 11 वीं शताब्दी के अनेक शिलालेखों में खरतर आचार्यों का नाम विभिन्न गोत्रों के साथ उत्कीर्णित है। खरतरगच्छ ही क्यों, श्तेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा के For Private and Personal Use Only
SR No.020517
Book TitleOsvansh Udbhav Aur Vikas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavirmal Lodha
PublisherLodha Bandhu Prakashan
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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