SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 219
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 190 तमाम लोग मांसाहारी थे, इसलिये साधुओं को भिक्षा नहीं मिली। आचार्य श्री ने आदेश किया कि जो विकट तपश्चर्या करने वाले हैं, वे चातुर्मास के लिये रुक जायें और शेष विहार करें। www.kobatirth.org राजा उत्पलदेव की पुत्री सौभाग्यसुन्दरी का विवाह मंत्री पुत्र त्रैलोक्यसिंह के साथ हुआ। एक समय राजकन्या अपने पतिदेव के साथ शैया पर सो रही थी, तब एक सर्प ने कुमार को sa लिया। कुमार मृतावस्था को प्राप्त हो गये । नगर में शोक के काले बादल छा गये। राजा, मंत्री और नगर के लोग रुदन करते हुए राजमाता की श्मशान यात्रा के लिये जा रहे थे। सब लोग सूरि जी के पास आये और राजा तथा मंत्री दीन स्वर से प्रार्थना करने लगे, हे दयासिंधो ! आप हमारे पर दुर्देव का कोप होने से हमारा राज्य शून्य हो गया है। हमारे पुत्र रूपी धन को मृत्यु रूपी चोर ने हरण कर लिया है। हे करुणावतार! आप हमारे दुख का पार नहीं है, अतः आप कृपा कर हमारे संकट को दूर कर पुत्र रूपी भिक्षा प्रदान करें। आचार्य श्री ने गरम जल मंगवाया। उस गर्म जल से सूरि जी के चरणांगुष्ठ का प्रक्षालन कर इस जल को मंत्री पुत्र पर डाला ।' बस, फिर तो क्या था, मंत्री पुत्र के शरीर से विष चोरों की तरह भाग गया और मंत्रीपुत्र खड़े होकर इधर उधर देखने लगा। सब लोग आश्चर्यचकित हो गये । उस समय चारों ओर हर्ष और नाद के बाजे बजने लगे। सबके मुँह से यही शब्द निकलने लगे कि इन महात्मा की कृपा से मंत्रीपुत्र ने नया जीवन प्राप्त किया है । 2 उस समय राजा ने खजांचियों ने मणिमुक्ताएं मुनि श्री को भेंट स्वरूप ले गये । किन्तु ग्रहण करने से मना कर दिया। 1. उपकेशगच्छ चरित्र, पृ. 185 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उस समय सूरि जी ने कहा कि हम केवल जनकल्याणार्थ भ्रमण करते हैं। यदि आप लोगों की इच्छा हो तो जैनधर्म को स्वीकार कर लो, ताकि इस लोक और परलोक में आपका 2. वही ! वादित्रान् आर्कण्य लघुशिष्यः तत्रागत झंपाणों दृष्टवा एवं कथापयति भो ! जीवितं कथं ज्वालायत्ः ते श्रेष्ठिने कथितं एषं मुनिवरं एवं कथयति । श्रेष्ठिना झंपाणो वालितः क्षुल्लकः प्ररष्ट्र गुरु पृष्ठे स्थितः मृतकामानीय गुरु अग्रे मुचति श्रेष्ट्रि चरणों शिरं निवेश्य एवं कथयति भो दयालु ममदेवी रूष्ठ ममगृहो शून्यो भवति तेन कारणेन मम पुत्र भिक्षां देहि ? गुरुणा प्रासुक जलमानीय चरणौ प्रक्षाल्य तस्य छंटितं । कारणे सज्ने हर्ष वादित्राणि वभूव । लोकैः कथितं श्रेष्ठि पुत्र नूतन जन्मो आगतः । मुने सालित चरणेन जलेन परिषेचनम् । कृतं मृतो परितदा सहसा जीवितोत्थित ॥ उवाच जनता तत्र हर्ष वादित्र निस्वनै । अद्य त्वया मंत्रिपुत्र । लब्ध जन्म द्वितीयकम ॥ 3. उपकेशगच्छ पट्टावली श्रेष्ठता गुरुणां अग्रे अनेक मणिमुक्ता फल सुवर्ण वस्त्रादि भगवान गुह्यता ? गुरुणां कथितं मम न कार्य परं भवद्भि जैनधर्म गृह्यतां । For Private and Personal Use Only
SR No.020517
Book TitleOsvansh Udbhav Aur Vikas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavirmal Lodha
PublisherLodha Bandhu Prakashan
Publication Year2000
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy