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में आलन हुआ । आलन के चार पुत्रों - देवसी, त्रिपाल, भवानी और राखेचा हुए, राखेचा के नाम से राखेचा गोत्र की स्थापना तर्क संगत लगती है। राखेचा के पुत्र पुंगल में बसे, उससे पुंगलिया गोत्र की स्थापना हुई ।
1192 वि.सं में राठौड़ खरहत्थ चोरडिया गांव में आचार्य श्री जिनदत्तसूरि ने प्रतिबोधित कर चोरडिया गोत्र की स्थापना की। चोरडिया गांव जोधपुर - जैसलमेर (तहसील शेरगढ़) मार्ग में स्थित है । वि.सं 1192 में ही बच्छराज राठौड़ को प्रतिबोधित कर गोलेच्छा गोत्र की स्थापनाकी। खरहत्थ के दूसरे पुत्र भैंसाशाह और फिर भैंसाशाह के दूसरे पुत्र गेलोजी और गेलोजी बच्छराज को गेलबच्छा कहते थे, उसी से गोलेछा गोत्र का नामकरण पड़ा। भैंसाशाह के बड़े पुत्र कुंवर जी राठौड़ को प्रतिबोधित कर चित्तौड़ में सावणसुखा गोत्र की स्थापना की। उसने एक बा भविष्यवाणी की कि सावन सूखा है, भादो हरा है, उसी से सावणसुखा गोत्र बना।
खरहत्थ सिंह के पौत्र सेनहत्थ (प्यार से गद्दाशाह) से खरतरगच्छाचार्य श्री जिनदत्तसूरि प्रतिबोधित कर धैया (गद्दाहिया ) गोत्र की स्थापना । वि.सं 1192 में आहड़ में राठौड़ पाशुजी को प्रतिबोधित कर पारख गोत्र की स्थापना की। पाशु भैंसाशाह का चौथा पुत्र था । पाशु हीरों का पारखी था, इसका गोत्र पारख कहलाया। मुलतान में मूंधड़ा माहेश्वरी धींगड़मल को प्रतिबोधित कर वि.सं 1192 में प्रतिबोधित कर लूनिया गोत्र की स्थापना की । धींगड़मल के पुत्र लूणा को प्रतिबोधित करने के कारण यह गोत्र लूणिया कहलाया ।
वि.सं 1196 में भण्साल में भादोजी भाटी को प्रतिबोधित कर भंसाली गोत्र की स्थापना की। भाटों और कुलगुरुओं की प्राचीन बहियों के अनुसार तो जिनेश्वरसूरि जी ने भंसाली गोत्र की स्थापना की, किन्तु जोधपुर के मुनि सुव्रत स्वामी के जैन मंदिर के तलघर में संरक्षित शास्त्रभण्डार के एक प्राचीनपत्र के अनुसार जिनदत्तसूरि ने भण्सोल नगरी के भाटी भादोजी को प्रतिबोधित कर भंसाली गोत्र की स्थापना की। इसमें कहा गया है:
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"श्री पूज्यजी श्री जिनदत्त सूरिजी प्रतिबोध्या भाटी भादोजी गांव भणसोल नगरी से राज करता था ।" इसमें विस्तार से अंकित है कि कौन कहाँ बसा ।
वि.सं 1197 में विक्रमपुर में सोनगरा राजपूत हीरसेन को प्रतिबोधित कर डोसी गोत्र की और विक्रमपुर में ही चौहान राजपूत पीउला को प्रतिबोधित कर पीथलिया गोत्र की स्थापना की। ठाकुर ने अपना दोष स्वीकार करने के कारण दोसी गोत्र पड़ा और पीउला नाम से पीथलिया गोत्र की स्थापना हुई। इन्होंने देलवाड़ा में क्षत्रिय बोहित्थ को प्रतिबोधित कर बोथरा (बोहित्थरा ) गोत्र की स्थापना हुआ। बोथरा गोत्र में ही बच्छाजी से बच्छावत गोत्र हुआ।
वि.सं 1198 में सिंध में भाटी अभयसिंह को प्रतिबोधित कर आयरिया गोत्र की स्थापना की। नदी में पानी आ रहा था, राजा ने कहा, "आयरिया है।' इसी से आचार्य ने आयरिया गोत्र की संज्ञा दे दी। इसी के वंश में सत्रहवीं पीढ़ी में लूणाशाह से लूणावत गोत्र का नाम पड़ा। वि.सं 1201 में खाटू में बुद्धविंह चौहान को प्रतिबोधित कर खाटू के नाम से खाटेड़ गोत्र की स्थापना की ।
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