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3. भक्त परिज्ञा- भोजन छोड़ देने को भक्त परिज्ञा कहते हैं। इसमें भक्त परिज्ञा की विधि का निरुपण है।
4. संस्तारक - इसकी 123 गाथाओं में समाधिमरण या संथारे का कथन है।
5. तनुल वैचारिक - इसमें शरीर की रचना को लेकर भगवान महावीर और गौतम के बीच का संवाद है। इसकी गाथाएं 1 39 हैं। इसके टीकाकार विजयविमलगणि है।
6. चन्द्रवैध्यक - इसमें 1 74 गाथाएं हैं। इसमें बताया है कि आत्मा के एकाग्र ध्यान से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
7. देवेन्द्र स्तव - इनकी 307 गाथाओं में देवेन्द्रों का कथन है। 8. गणिविद्या - इसकी 82 गाथाओं में ज्योतिष का कथन है। 9. महाप्रत्याख्यान - 142 गाथाओं में महाप्रत्याख्यान का कथन है। 10. वीर स्तव - इसकी गाथाओं में भगवान महावीर की गणना स्तुति रूप में है।
'दस पइन्ना' की तालिका अनिश्चित है। संक्रांतिकाल और हरिभद्रकाल (हरिभद्रसूरि से 1000 ई तक) संक्रांतिकाल
वीर निर्वाण के एक हजार पश्चात् तक का अर्थात् देवद्धि क्षमाश्रमण के पश्चात् पाँच सौ सात सौ वर्षों का जैनधर्म का इतिहास तिमिराच्छन्न है, विस्मृति के घनान्धकार में विलीन हो चुका था। यही कारण है कि उन पाँच सात सौ वर्षों की अवधि के जैन इतिहास से सम्बन्धित न तो कोई श्रृंखलाबद्ध तथ्य उपलब्ध होते हैं और न विर्कीण तथ्य ही।' इस युग में साधुओं ने तंत्र, मंत्र, यंत्र, मूर्तियों, मंदिरों आदि के माध्यम से प्रभुत्व, सत्ता, ऐश्वर्य, कीर्ति और विपुल वैभव प्राप्त करना प्रारम्भ कर दिया। मुनियों का आचरण शिथिल से शिथिलतर होता गया है। सातवींआठवीं शताब्दी में जैन साधुओं और पुरोहितों के बीच का अंतर समाप्त हो गया है। वे जैन भक्तों द्वारा प्राप्त अथाह धन के स्वामी होते गये। वीर निर्वाण संवत् 1000 से 1300 तक के जैनधर्म के इतिहास पर भाव परम्पराओं के स्थान पर द्रव्य परम्पराएं छाई रही।
वीर निर्वाण संवत् 850 में चैत्यवासी संघ की स्थापना हुई थी। अंध श्रद्धालुओं ने
1. जैनधर्म का मौलिक इतिहास, (तृतीय खण्ड) पृ7 2. Ram Bhushan Prasad Singh, Jainism in Early Mediveal Karnataka, Page 51
Thus the distincation between Jain monks & priests gradually disappeared from the 7th & 8th century. The change in usual practise of priesthood would have surely made them the sole master of enormous wealth acquired from endowments made by the Jain
devotees. 3. जैनधर्म का मौलिक इतिहास, (तृतीय खण्ड) पृ73
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