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हरिषेण के ‘वृहत्कोश कथा' (वि.स. 989), देवसेन के 'दर्शनसार' (वि.स. 999)', भावसंग्रह और रत्नंदी के 'भद्रबाहु चरित्र' आदि दिगम्बर ग्रंथों में श्वेतांबर संघ के उद्भव की
कथा है ।
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देवसेन के 'दर्शनसार'' के अनुसार विक्रमराजा की मृत्यु के 136 वर्ष पश्चात् वलभीपुर में श्वेतपट संघ उत्पन्न हुआ। श्री भद्रगणि के शिष्य शांतिनाथ के नाम के आचार्य थे, उनका जिनचंद्र नाम का एक शिथिलचारी दुष्ट शिष्य था । उसने माना कि वस्त्रधारण करने वाला मुनि मोक्ष प्राप्त कर सकता है ।
श्वेताम्बर - दिगम्बर किस समय उत्पन्न हुआ- इस प्रश्न पर यदि मोटे तौर पर विचार किया जाय तो दोनों परम्पराओं की मान्यताओं में कोई अन्तर दृष्टिगोचर नहीं होगा। केवल तीन वर्षका अन्तर है । इस प्रकार सम्प्रदाय भेद दिगम्बर परम्परा की प्राचीन एवं साधारणतय वर्तमान में प्रचलित मान्यतानुसार वीर निर्वाण संवत् 606 में और श्वेताम्बर परम्परा की सर्वसम्मत मान्यतानुसार वीरनिर्वाण संवत् 601 में हुआ माना जाता है। डॉ. गुलाबचंद्र चौधरी के अनुसार ईसा की 4 - 5वीं शताब्दी में जैनसंघ के वहाँ विशाल दो सम्प्रदाय - श्वेतपट महाश्रमण संघ और निर्ग्रथ महाश्रमण संघ का अस्तित्व था । वस्तुतः कलिंग के शासक खारवेल के समय में श्वेताम्बर मत अस्तित्व में आ चुका था। यहाँ एक सम्मेलन भी हुआ, जब आगमों को लिपिबद्ध किया गया। इनके साधु श्वेताम्बर परम्परा के थे, वे श्वेतवस्त्र धारण करते थे । खारवेल के समय के बारे में विवाद है, यह समय ईसा के बाद 4,3,2 और प्रथम शताब्दी का हो सकता है। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार दिगम्बर सम्प्रदाय की स्थापना कब हुई, यह अब भी अनुसंधान सापेक्ष है । परम्परा से इसकी स्थापना वीर निर्वाण की छठी सातवीं शताब्दी में मानी जाती है। श्वेताम्बर नाम कब पड़ा, यह भी अन्वेषण का विषय है। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सापेक्ष शब्द हैं। इनमें से एक के नामकरण होने के बाद ही दूसरे के नामकरण की आवश्यकता हुई ।' श्वेताम्बर से दिगम्बर शाखा निकली, यह भी नहीं कहा जा सकता। दिगम्बर से श्वेताम्बर शाखा का उद्भव हुआ, यह भी नहीं कहा जा सकता है। प्रत्येक सम्प्रदाय अपने को मूल और दूसरे को अपनी शाखा बताता है। किंवदन्ती के अनुसार वीर निर्वाण 601 वर्ष के पश्चात् दिगम्बर सम्प्रदाय का जन्म हुआ, यह
1. दर्शनसार
एक्कसए छत्रीसे विक्कभरायस मण्णपतस्य । सोरठ्ठे बलतीए उपण्णो संघी ॥1॥ सिरिभद्द बाहुगणिणो सीसोणामेण संति आइरिओ । तएस थ सी टुट्ठो जिणचंदो मंदचारित्तो ||2|| ते कियं मययेदं इत्थीणं आत्थे तब्भवे मोक्शो । केवलाणाणीण पुण अण्ण करताव तहा रोगो ॥3॥ अंबर सहिओ वि जई सिज्यई वीरस्स गन्भचारतै । परलिंगे वियमुत्ती द्वासु योज्नं च सव्वत्थ ॥4॥
2. जैन धर्म का मौलिक इतिहास, द्वितीय खण्ड, पृ 10
3. जैन शिलालेख संग्रह भाग 3 (माणिकचंद दिगम्बर जैन ग्रंथमाला समिति) प्रस्तावना, पृ 3 4. युवाचार्य महाप्रज्ञ, जैन परम्परा का इतिहास ( छठा संस्करण, 1990) पृ 66
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