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दीगई, तथा १८५४ में व्यवहत भाषा को सरल बनाने का आदेश हुआ। परन्तु सरकारी भाषा के निर्माण का काम इस बीच ऐसे हाथों में जा चुका था, कि इन आज्ञाओं का कुछ फल न निकला।
इस सम्बन्ध में श्री चन्द्रवली पाण्डे द्वारा 'दास्ताने तारीख़ उर्दू' से लिया हुआ एक उद्धरण पढ़िये
"कानून इनकमक्स का तरजुमा लिपुर्द हुआ, तो उसमें बा० शिवप्रसाद, इन्स्पेक्टर मदारिस, भी शरीक होगए । भौलाना खुद ही, तरजमा करना चाहते थे, लेकिन बाबू साहब के मातहत थे । और कुछ न कर सके तो उनको परेशान करना शुरू किया । बाबू साहब तरजमा बोलते । यह लिखते । दरमियान में उन्होंने पूछा 'लिख चुके ?' मौलाना ने यह लम्ज भी लिख लिया । उन्हों ने पढ़वा कर सुना तो यह लज भी पड़कर सुना दिया । वह खफा हुए, और कहा'यह दाखिल गुस्ताखी है' । उन्हों ने यह फ़ितरा भी दर्ज कर दिया । आखिर इन्सोक्टर साहब अजिज़ आगए ।"
अन्त में मौलवी नीर अहमद, तकालीन शिक्षाविभाग के डाइरेक्टर मि० कमलन, तथा ले० गवर्नर सर विलियम म्योर, के सहयोग से हमारी विधान-पुस्तकों की यह भाषा बनी, जिसके शब्द, पं० चन्द्रवली पाण्डे के कथनानुसार, " अरब, ईरान अथवा तूरान में भी नहीं बोले जाते । " बाबू शिवप्रसाद सितारेहिन्द ने इस भाषा का बड़ा विरोध किया । स्व. पं. मदनमोहन मालवीय तथा काशीनागरीप्रचा'रिणी सभा ने घोर आंदोलन किया । फलतः सन् १६०० में न्यायालयों में नागरी को अपना स्थान तो वापस मिला, परंतु
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