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व्यवहारस्य विचाराः उवज्झाए अंतो उवस्सयस्स उच्चार पासवणं वा विगिंचमाणे वा विसोहमाणे वा नाइकमइ, आचार्यश्वासावुपाध्यायश्च आयरियउवज्झाए एसो केसिंचि आयरिओ केसिंचि उवज्झाओ नियमेण पुण सो आयरिओ कुलाइकज्जेणं निग्गओ पडियागओ उस्सग्गेण ताव वसहीए बाहिं चेव पाए पष्फोडेइ, निकारणे पाए बाहिं न पष्फोडेइ, पंच राईदियाणि । जइ बाहिं सागारिय होज तो वसहिं पविसित्ता पप्फोडणा, तत्थ विहीए पप्फोडेयव्वं पडिलाभित्ता पमजित्ता। सो अभिग्गहिओ आयरियसंतिएणं रयहरणेण आयरियस्स पाया पमज्जइ । अहव उनिओ पायपुंछणो तेण वा ।
सुखवंतमि परियारवं च वणियंतरावणुट्टाणे ।
दुवार्णानगममी य हाणि य परमुहावन्नो ॥ ९७ ॥ इत्याचार्येण बहिभूमौ न गन्तव्यम् । उप्पण्णनाणा जह नो अडंती चोत्तीसबुद्धाइसया जिणिंदा । एवं गणी अट्टगुणोववेओ सत्था व नो हिंडइ इइदिमं तु ॥ १२५॥ इत्याचार्येण न भिक्षणीयम् ।
सुत्तस्स मंडलीए नियमा उटुंति आयरियमाई । मोत्तूण पवायंतं न उ अत्थे दिक्खण गुरुपि ॥ १९८ ॥
अनुयोग इति शेषः । भत्ते पाणे धोवण पसंसणा हत्थपायसोए य । आयरिए अइसेसा अणाइसेसा अणायरिए ॥ २२९ ॥ कालसभावाणुमयं भत्तं पाणं अचित्तं खेत्ते । मलिणा मलि य जाया चोलाइ तस्स धोवेति ॥ २३०॥ परवाईण अगम्मो नेव अवण्णं करति सुयसेहा । जइ अकहिउ वि नजइ एस गणी ओजपरिहीणो ॥ २३१ ॥ एए पुण अइसेसे उवजीवेयावि कोवि दढदेहो। निदरिसणंपत्थभवे अजसमुद्दा य मंगू य ॥ २३९ ॥
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