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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उसी प्रकार सब नय [जो परदर्शन-रूप हैं] चाहे परस्पर में कितने ही विरोधी दृष्टि-गत होते हों, पर जिन-शासनरूपी चक्रवर्ती की आज्ञा में तो वे सब शान्तिपूर्वक अविरोधी होकर सेवा में तत्पर रहते हैं। ___ संसार में अनन्त प्राणी हैं, अतः उनको विचार-सरणियाँ भी अनन्त हैं । और जितनी विचार-पद्धतियाँ हैं, उतने ही पर-समय हैं। यदि उन सब पर-सिद्धान्तों को-जो अन्य दर्शन के रूप में हैं- एकत्रित कर दिया जाय, तो वही जैनदर्शन का रूप बन जाता है। अन्य दर्शनों के समन्वित रूप का नाम ही तो जैन-दर्शन है । अतः जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने कहा है जावंतो वयणपहा तातो वा नया विसदाओ। ते चेव य परसमया, सम्मत्तं समुदिया सव्वे ॥ विशेषा०, २२६५ -जितने भी वचन के प्रकार हैं, उतने ही नय हैं और जितने नय हैं, वे सब एकान्त निश्चय वाले होने से अन्य दर्शन-रूप हैं । परन्तु, जब वे समुदित (एकत्रित) हो जाते हैं, तो एकान्त निश्चय से रहित होकर, 'स्यात्' शब्द से युक्त होने के कारण सम्यक् [सच्चे बन जाते हैं। For Private And Personal Use Only
SR No.020502
Book TitleNaykarnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinayvijay, Sureshchandra Shastri
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year
Total Pages95
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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