SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संग्रहनय के उपर्युक्त कथन को दृष्टान्त के द्वारा स्पष्ट करते हैं विना वनस्पति कोऽपि, निम्बाम्रादिर्न दृश्यते । हस्ताद्यन्त विन्यो हि, नाङ्गु ल्याद्यास्ततः पृथक् ॥७॥ अर्थ [जिस प्रकार ] वनस्पति से पृथक नीम, अाम, बबूल आदि कहीं दृष्टिगोचर नहीं होते, हाथ में व्याप्त अंगुली तथा नाखून हाथ से अलग कहीं नहीं हैं [ उसी प्रकार सामान्य से व्यतिरिक्त विशेष कहीं भी दृष्टिगत नहीं होता] विवेचन प्रस्तुत पद्य में दृष्टान्त के द्वारा ग्रन्थकार ने इस बात का स्पष्टीकरण करने का प्रयत्न किया है कि सामान्य से पृथक् विशेष धर्म कहीं भी दृष्टि-पथ में नहीं आता। जिस प्रकार वनस्पति से पृथक कोई भी फल अथवा वृक्ष दृष्टिगोचर नहीं होता । अर्थात् नीम या आम आदि वृक्ष जब भी दिखलाई पड़ते हैं, तभी वनस्पति का बोध हो जाता है, अतः वनस्पति-सामान्य से अतिरिक्त वृक्ष,फल आदि विशेष का कहीं अस्तित्व नहीं हुआ। यहाँ पर वनस्पति एक For Private And Personal Use Only
SR No.020502
Book TitleNaykarnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinayvijay, Sureshchandra Shastri
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year
Total Pages95
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy