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( नाडीप्रकाश २१) ज्वर को पेन धमनी सोस्मा वेगवती भवेत॥काम क्रोधाद्वग महाक्षीणा
चिताभया प्रता॥५॥ टीका-ज्वर की नाडी गरम होती है मोर जल्दी चलती है. कामा तर की ओर कोध वान की नाही चलती है चिंता वान की और भयभीत की नाडी क्षीण होती है।
क्ष्मा नाग सदृशी पायःवच्छवस्थ स्य वैशिरा ॥सुरखी तस्य स्थिरा ज्ञेया
तथा बल बती मता॥ टीका-सुरती मनुष्य की नाडी केंचुरो जान वर कीसी चालच लती है और स्वच्छ स्थिर घर संयुक्त होती है।
पाल स्निग्धतरा नाडी मध्या न्हे प्यु मतान्विता ॥ सायान्हे घाम मानाव
ज्ञेया रोग विवर्जितः॥ टीका-निरोग मनुष्य की नाड़ी प्रात काल के समय स्थिर ।।
और सचिचरण चलती है और मध्यान्ह समय में कुछ गरमी संयुक्त नाडी चलती है और सायं काल के समय शीघ्र गति से चलती है।
मधुरे वहिगा नाडीतिने स्थूल गति भवेत्॥अम्ले भेक गति कोआ कटु
कैर्भग सनिभा॥ टीका-जिस मनुष्य ने मधुर भोजन किया होय उसकी नाड़ी मयूर की चाल चलती है और निक्त भोजन खाने से स्थूल गति
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